३२ [गोरख-बानी असाध साधत गगन गाजंत, उनमनी लागंत ताली। उलटंत पवनं पलटत बांणी, अपीव पीवत५ जे ब्रह्मग्यांनी ॥५०॥ अलेष लेषत अदेष देपंत, अरस परस ते दरस जांणीं । सुनि' गरजंत बाजंत नाद अलेष लेषंत ते निज प्रवाणी१° ॥४१॥ निहचल१९ घरि बैसिबा पवन २ निरोधिबा' 3 कदे न होइगा रोगी। बरस दिन मैं तीनि बार काया पलटिबा१४,नागबग बनासपती जोगी ॥२॥ (सूर्य के ऊपर चन्द्रमा की विशेषता अर्थात् अमृत ) सिद्ध होगी। इससे अनन्त कला पूर्ण अर्थात् ब्रह्मानुभवमय जीवन प्राप्त होगा। विशाल प्रकाशमय ज्योति के दर्शन होंगे, सिद्धि साधते हुए चार कला (अमृत) का पान करेगा ॥८६ जो असाध्य अथवा असाधु (मन) को साधते हैं ( वश करते हैं ), गगन को (अनाहत नाद से ) गर्जित करते हैं, उन्मनी समाधि लगाते हैं , पवन को उलटते और सुपुम्णा (सरस्वती, वाणी ) के मार्ग में पलट कर लगा देते हैं, और अमृत पान करते हैं (वे ) ब्रह्मज्ञानी हैं ॥३०॥ जो लिखा नहीं जा सकता उसका लेखा (देखकर वर्णन ) करने वाले, जो देखा नहीं जा सकता, उसे देखनेवाले, ब्रह्म का छू छू कर (अरस-परस) अर्थात् स्वयं साक्षात् दर्शन करने वाले, ब्रह्मरंध्र को अनाहत-नाद से गर्जित करने वाले निज प्रमाण से, स्वयं अपने अनुभव से ब्रह्म को जानते हैं ॥६॥ निश्चत रूप से अपने घर बैठना चाहिए, श्रात्मस्थ होना चाहिए, (ऐसा करने से साधक) कभी रोगी न होगा । (परन्तु साथ हो) नाग (सीसे का मस्म), बंग (टिन । 1) और बनस्पति के प्रयोग से वर्ष भर में तीन बार काया करप करन, शाहिए ॥१२॥ १. (क) माघ । । ३. (ख) गरजांत, (ग) अजंत; (घ) गर ५ (ख), (घ) पीवंत, (ग) पीवंति । ६.( (ग), (घ) दरस। ८. (ख) तां । ९. ग), (घ) । (ख) में इर. लखीत अदेप देखाता, दरस है। निहिचल । १२. (ग) (१) परमोधिवा । १५. .
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