फूल Tho गोरख-बानी] ३१ सुणौ हो। देवल तजौ जंजालं, अमियर पीवत तब होइबा बालं । ब्रह्म अगनि सींचत मुलं, फूल्या फूल कली फिरि फूलं ॥७॥ उलट्या पवनां गगन समोइ तब बाल रूप परषि होई। उदै ग्रह अस्त हेम हि पवन मेला, वधिले हस्तिया निज साल भेला । बारा कला सोपे सोला कला पोथै, चारि कला साधै अनंत कला जीवे । अरम धूरम जोती ज्वाला' सोधि२° सात२१ चारि२२कला पीवै ।।८९॥ से बालक कैसे हो सकते हैं। जो फूल खिल चुका है वह फिर कली कैसे हो सकता है। पूछे जाने पर इसका उत्तर जो दे वही गोरखनाथ है ॥६॥ हे देवल (नाथ ! ) जगत के जंजाल को छोड़ो। (योग की युति से) अमृत का पान करो तो पालक हो सकते हो। ब्रह्माग्नि से मुल को सींचने से जो खिल चुका वह फूल भी कली हो जाता है ॥७॥ पवन को उलटकर ममरंध्र में समावे। तव बालक रूप प्रत्यत्त होता है। उदय के घर में अस्त लाने से (अर्थात् मूलाधार स्थित सूर्य को अस्त करने से और चंद्र हेम (हिम ) के घर ब्रह्मरंध्र में पवन का सम्मिलन करने से बंधा हुआ (बँधकर) हाथी (मन) अपनी शाला में (जहाँ उसे योग सिद्ध के लिए रहना चाहिये अर्थात् आत्मा की अज्ञानता में) था जाता ८८॥ बारह कला (मूलाधारय सूर्य) को सोखे (जिससे वह सूर्य अमृत के निर्मर को स्वयं सोखने में समर्थ न हो और इस प्रकार ) सोलह कला (सहस्रारस्थ अमृतनावक चन्द्रमा) का पोषण करे । इस प्रकार चार कलाएँ १. (ख) सुणो हो, (ग) सुणि है। (ध) सुणि हो । २. (ख) अपाव,(घ) अपीव, (ग) अमी। (ख) पीवता; (ग) पीवतां; (घ) पीवतॆ । ३. (ग), (घ) सचिवा। ४. (ग ) फिर । ५. (घ) उलटा । ६. (ख), (ग), (घ) पवन । ७. (ख) गिगनि । ८. (ख) समाइ; (घ) समोय । ९. (क) प्रतदि; (ग) रूप प्रतीग । १०. (ख), (ग) जोइ, (घ) होय। ११. (क) ग्रह "ग्रह्य; (ख) ग्रहि (पहि !). अहि । १२. (ग) मिहै 'ग्रीहै । (ग) में 'अस्ति' के आगे भी मिहे' । १३. (ग), (घ) पवनां । १४. (ग) बंषिले। १५. (ख) हसतिया; (ग) हस्तिये; (घ) में साल नहीं है। १६. (ख) वारे; (ग) बाराह; (क), (घ) बारह । १५. (ख), (ग) सालै; (घ) सोलह । १८. (ग) जोवै। १६. (ख) बुजाला। २०. (क) सीधे; (ख), (ग) सिधे । २१. साधत । २२. (घ) च्यारि । .
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