, २८ [गोरख-बानी अरध-उरघ विचि धरी उठाई२, मधि सुनि मैं बैठा जाई । मतवाला की संगति आई, कथंत गोरपनाथ परमगति पाई ॥ ७८॥ डडी सो५ जे आपा डंडे, आवत जाती मनसा पंडै । पंचों इंद्री का मरदै मान, सो डंडी कहिये तत्त११ समान ॥७९॥ पाया लो भल पाया लो'२सबद १३ थान सहेती १४ थीति१५॥ रूप संहता १६ दीसण लागा१६, तव सर्व १७ भई परतीति ।। ८०॥ (घेला, अनुगामी पना लिया), तप निरंजन निराकार से भेंट की। हे अवधूत मन रूप मस्त हायी जब मिल जाय (हाथ लग जाय, अपना हो जाय) तप अक्षय भंडार लूटने को मिल जाता है || ७७ ॥ यासा (अथवा शक्ति) को परध (श्रधः नीचे, अंदर जाने वाली वायु) और जर्व (उच्छ्वास) के योच में उठा र रक्खा अर्थात् केवल कुंभक किया और मध्य शून्य (ब्रह्मरंध्र ) में जा बैठा । वहां मतवाले शिव (मल तत्व ) को संगति मिली । इस प्रकार गोरखनाथ कहते हैं (कि हमें) परम गति प्राप्त हो गयी |॥ ७० ॥ दंती यह है जो थापा (अहकार ) को दंडित करता है । यौर पातो. (परिवर्तनशील, चंचल ) कामना (मनसा) को खंडित करता है। पांचों इन्द्रियों का मान मर्दित करता है। ऐसा ही दुसरी प्रसतत्व में लीन होता है॥१॥ मैंने पा लिया ! असा पाया, शब्द (के द्वारा) स्यान (ग्रा पद) महिन यिनि हो । तप माह के रूप मदित (साक्षात्) दर्शन होने लगे भोर मय प्रकार विश्वास हो गया; मुक्ति में कोई संदेह नही रह गया ।। ८० ॥ १. (R) घरमा । २. (५) उठाय .. जाय । ३. (ख), (ग), (ग) मनिताता। ४. (क) गोरप कहे। ५. (ग), (घ) सोई । ६. (ख) (ग)3 (4) मौ । ७. (१) जापती । ८. (ग) पांचू। ६. (स), (घ) मंद्रो। १०.(ब), (प) काहिच । ११.(क), (स), (ग), (घ) तत । १२.(ग) पागले पीपाला। १३. () (ग) (प) सरव । १४. (क) १५. (६), (१), (प) लिपि; (ग) लिपि । १६, (ग) (4) गदेती... 1.), (ग); (4) टि।
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