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परमात्मा गोरख-बानी] मन मैं रहिणां भेद न कहिणां, बोलिबा अंमृत वाणीं। आगिला"अगनी होइवा अवधू , तौ आपण होइबा पाणी ॥३॥ उनमनि रहिबा' भेद न१० कहिवा, ९ पीयवा नीझर पाणीं । लंका छाडि१३ पलंका१४ जाइबा, तव गुरमुष ५ लेबा१६ वाणीं ॥६॥ किसी स्थान (पद) पर मिलने की प्राशा होनी चाहिए। लोग परमारमा की प्राप्ति के लिए बन बन फिरा करते हैं। अगर ब्रह्मानुभूति सचमुच बन ही में उत्पन्न होती है तो उसे चौपायों में भी देखने की प्राशा करनी चाहिए। (कुछ लोग केवल दूध पर रह कर परमात्मा को प्राप्त करना चाहते हैं ) यदि दृद्ध है तो उसे घी के रूप में देखने की प्राशा करनी चाहिए। (परन्तु असल में इन बाहरी बातों से परमात्मा नहीं मिलता। इसका सार उराय करणी- करतब, योग-युक्ति अर्थात् समुचित रहनी है ।। ६२ ॥ बनप्रांतर श्रादिकों में रहने के स्थान पर मन में रहना चाहिए अर्थात् बहिर्मुख वृत्तियों को अंतर्मुख कर देना चाहिए। अपने मन का रहस्य किसी से न कहना चाहिए ( क्योंकि इस रहस्यमय अनुभूति को कोई समझनेवाला नहीं है) मीठी बाणी बोलनी चाहिए। अगर दूसरा आदमी तुम पर श्राग बबूला हो जाय तो (तुम्हें) पानी हो जाना चाहिए, क्षमा दिखानी चाहिए ।। ६३॥ उन्मनावस्था में लीन रहना चाहिए। किसी से अपना भेद (रहस्य) न कहना चाहिए। (अमृत के) मरने पर पानी (अमृत) पोना चाहिए। गुरु के मुख से ज्ञानोपदेश सुनने के लिए लंका क्या परलंका (लंका के परे, से भी दूर जाना पड़े तो) जाना चाहिए । अथवा माया (लंका, राक्षसों की मायाविनी नगरी) को छोड़कर उससे परे (परलंका ) ही जाना चाहिए । तभी गुरु का दिया ज्ञानोपदेश हृदयंगम हो सकता है ॥६॥ १. (ख) रहणा; (ग), (घ) रहणां । २. (ख) मेव । ३. (ख) करणां, (घ) कहणां । ४. (ख) अम्रत, (ग) अमृत, (घ) यनत । ५. (ख) अगिला। ६. (घ) होयबा । ७. (ग) (घ) में अबधू नहीं है। ८. (ग) (घ) अाप । ९. (ख) रहणा, कहणा । मेव ण । १०. (घ) पीबा, (ग) पीवावा । १२, (ख) नी- झरना । १३. (ख) छोड़ि। १४. (क) प्रलंका, (ख) पडलंका (घ) परलंका । १५. (ख) गुरमुषि । १६. (ख) लइबा । 1 है,