१८ [गोरख-बानी चालत चंदवा पिसि षिसि पड़े। बैठा ब्रह्म अगनि परजलै । आडै आसणि गोटिका बंध । जावत प्रथिमी तावत कंध ॥४९॥ यहु५ मन सकती यहुपं मन सीव । यहुष मन पांच तत्त का जीव । यहु मन ले जै। उन मन रहै। तो तीनि लोक की वातां १ कहै १२॥५०॥ 1 तत्व को कंथा बनाई है। वह क्षमा का खदासन, ज्ञान की अधारी, सद्बुद्धि को बड़ाऊँ और विचार का टंडा उपयोग में जाता है। काठ के डंडे में लगे हुए पीढ़े को अधारी कहते हैं जिसे योगी, साधु सहारे के लिए रखते हैं । इसी प्रकार का सदासन भी होता है निसके सहारे खड़े खड़े बैठने का सा सुख मिलता है। शरीर का नहीं मन का योग वास्तविक योग है। वाद्य युक्तियों को छोडकर श्राम्यंतर युफियों को ग्रहण करना चाहिए ॥४८॥ चंचलता से (चालत ) चंद्र त्राव (अमृत) खिसक खिसक कर क्षरित हो जाता है। स्थिरता से (बैटा ) ब्रह्माग्नि प्रज्वलित होती है। तिरछी (अर्यात् घन और स्थिर के बीच की) अवस्था में [श्रादि ] के अभ्यास से वह सिद्धि (गोटिका बंध ) प्राप्त होती है जिससे योगी इच्छानुसार अश्य हो जाता है [ कहते हैं कि सिद्ध योगी अभिमंत्रित गोली (गुटिका) मुंह में रखकर अवश्य हो जाता है ] और अमरत्व प्राप्त कर लेता है जिससे जय तक पृथ्वी रहती है तब तक उसका शरीर (स्कध= कंध) मी रहता है॥१६॥ यही मन शिय है, यही मन शक्ति है, यही मन पंच तत्वों से निर्मित जोय :, ( मन का अधिपान भी शिवतरव परब्रह्म ही है । माया (शक्ति) के संयोग से ही ब्रह्म मन के रूप में अमिम्यक्त होता है और मन ही से पंच- मनात्मक शरीर की सृष्टि होती है। इस लिए मन का यहुत बड़ा महत्व है ।) मन को लेकर उन्मनावस्था में लीन करने से साधक सर्वज्ञ हो जाता है, तीनों दोनों को पाते कर सकता है ॥ ५० ॥ १. (क) जावत (ब) चलता। २. (ग) परे परजरे। ३. (क) श्रासन (ब) श्रामण । ४. (घ) गुटिका । ५. (ख) प्रथमी, (क) पृथी, (घ) प्रिथमी। ६. (२) यो (ग) यो हूँ। ७. (घ) सती । ८. (क) पँच तत (ग) पँच सच । ९. (स) को, (घ) की। १०. (क), (ग), (घ) जे । ११. (क) यात १२. (ग) है।
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