प्रकाशक का वक्तव्य , . गोरखनाथ के नाम से हमारा अशिक्षित समाज तक अपरचित नहीं, किन्तु उनके जीवनचरित वा रचनाओं का पूरा पता अभी अपने विशेषज्ञों तक को नहीं है। 'गोरख' शब्द के पीछे अभी तक एक अनोखा रहस्य छिपा हुआ जान पड़ता है, और गुरु गोरखनाथ किसी प्रतीत युग के कोई अद्भुत व्यक्ति समझ परते हैं, जिन पर विविध काल्पनिक धारणाओं के धुंधलेपन ने एक पौराणिक श्राव- रण-सा डाल रक्खा है। फिर भी काबुल से कामरूप एवं काठ मांडू से सुदूर दक्षिण तक के कदाचित् ही कोई प्रदेश इनके प्रभाव से वंचित हो। भ्रमणशील यात्रियों को यदि कहीं खोह, कहीं टोले, कहीं मंदिर वा कहीं-कहीं भिन्न-भिन्न जातियों वा संस्थाओं द्वारा इनका स्मरण हो आता है, तो अध्ययनशील पाठकों के सामने, संस्कृत, बंगला, मराठी, पंजाबी, हिन्दी आदि भाषाओं की रचनाओं के अंतर्गत, इनकी योगपद्धति, शरीरविज्ञान, कायाकल्प, प्रारमनिरीक्षण, शुद्धचार वा समाज- सुधार-संबन्धी सिद्धांतों के अनेक प्रभाव वरावर दृष्टिगोचर होते रहते हैं । इनके नाम के साथ-साथ एक विचित्र परंपरा सी बंधी हुई है, जिसमें गोपीचन्द, भर- थरी, मयनामती, मछौंद्र, हाडीया, जलंधर, चपंट, चौरंगी, वा सैकड़ों कनफटे योगियों के जीते-जागते चित्र भरे पड़े हैं, और जिसके आधार पर भिन्न मिन 'गाना वा कहानियों भी रची जा चुकी हैं। हिन्दी-साहित्य के इतिहास में गुरु गोरखनाथ वा उनके पंथवालों की रचं त्रिों को एक विशेष महत्त्व का स्थान प्राप्त है। इनके पदों व सबढ़ियों की रचना का समय बौद्ध सिद्धों के प्राचीन दोहों व चर्यागीतियों के प्रायः पीछे तथा संतों के शब्दों एवं साखियों के बहुत पहले श्राता है। तदनुसार, यदि अाज तक की इन सभी उपलब्ध रचनात्रों का एक साथ तुलनात्मक अध्ययन कर उस पर विचार किया जाय तो, इनके विपथ, भाषा व रचना-शैली में एक विचित्र साम्य दीख पड़ेगा, और जान पड़ेगा कि लगभग एक ही प्रकार की विचारधारा व परं- परा का क्रमकि विकास बहुत काल तक निरंतर होता आया । उदाहरण के लिए मनोमारण वा चित्तशुद्धि, सहजभाव वा सहजानुभूति, विडंबना-विरोध व स्पष्टवादिता की झलक प्रायः सर्वच एक-सी दीख पड़ती है तथा रूपकों व उरट-
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