१४ [गोरख-बानी अति अहार' यंद्री बल करै नासै ग्यांन मैथुन चित धरै। व्यापै न्यंद्रा झपै काल ताके हिरदै५ सदा जंजाल ॥३६॥ घटि घटि गोरख वाही क्यारी । जो निपजै सो होइ हमारी। घटि घटि गोरष कहै कहाणीं । काचै भांडै रहे न पाणीं ॥३७॥ रक्षा हो सके और अपने देवत्व की रक्षा के लिए संयम से रहना चाहिए । मो जोगी मन पवन को संयुक्त कर उन्मनावस्था में लीन कर देते हैं वे ही तत्त्व का सार प्राप्त करते हैं ॥३॥ निद्रा में आसक्ति से जीव काल के जंजाल में फंसता है, आहार में भासक्ति से चोर ( कामदेव ) का हृदय में प्रवेश होता है, मैथुन से बुढ़ापा आ घेरता है। इसलिए नीचे गिरनेवाले (अरध) रेतस् को ऊर्वावस्था से. जोदना चाहिए, उर्ध्वरेता होना चाहिए ॥३५॥ । अधिक श्राहार करने से इन्द्रियाँ बलवती हो जाती हैं, जिससे ज्ञान नष्ट हो जाता है और व्यक्ति वासना तृप्ति की इच्छा करने लगता है, नींद पढ़ जाती है और काल उसे ढक लेता है। ऐसा व्यक्ति हमेशा उलमन में पड़ा रहता है ॥३६॥ गोरख (ब्रह्मलीन प्रारमा होने के कारण स्वयं ब्रह्म) ने प्रत्येक व्यक्ति की शरीर-रूप क्यारो को जोता-बोया है अर्थात् प्रत्येक हृदय में बीज रूप से परमारमा विद्यमान है, किन्तु हमारी (गोरख की, ब्रह्म की ) वही क्यारी है जिस में कुछ उपन हो जाय । अर्थात् वही ब्रह्मलीन हो सकता है जो उस अन्तःस्य ब्रह्म का स्वानुभव कर ले । गोरख प्रत्येक शरीर में अपना उपदेश कर रहे हैं, अनाहत नाद हो रहा है। (किन्तु इसका लाभ वे ही उठा सकते हैं जिन्होंने अपनी काया को सिद्ध कर लिया है। कहीं कच्ची होरी में पानी ठहर सकता है ? ( जिन्होंने अपनी काया को सिद्ध नहीं किया है, वे इससे नाम नहीं उठा सकते )। निपजै निष्पद्यते, निपस्नई।३७॥ १. (ग) हार । २. (ख) न्यासै; (घ) न्हासै । ३. (ख) मियन; (ग) मथन; (प) मईयन । ४. (घ) झकै । ५. (क) हृदै । .६. (ख) वावै । ७. (ख), (घ) होय । (ग) में प्रतिलिपिकार की असावधानी से छूट गया है । ८. (ग) में अंतिम दो चरण भी छूट गये हैं।
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