-5 गोरख-बानी] हबकि न बोलिवा, ठबकि न चालिबा धीरे धरिवा पाव। गरव न करिबा सहजै रहिबा भणत गोरष रावं ॥२७॥ भरथा ते थीरं झलमलंति५ आधा। सिधै सिध" मिल्या रे अवधूवोल्या अरु' लाधा ॥२८॥ नाथ कहै तुम१२ सुनहु१रे अवधू दिढ १४करि राषहु चीया। काम क्रोध अहंकार निबारौ१५ तौ सबै दिसंतर१६ कीया ॥२९॥ सब व्यवहार 'युक्त' होने चाहिए, सोच समझकर करने चाहिए । अचानक फटसे बोल नहीं उठना चाहिए। जोर से पाँव पटकते हुए नहीं चलना चाहिए। धीरे-धीरे पाँव रखना चाहिए। गर्व नहीं करना चाहिए। सहज स्वाभाविक स्थिति में रहना चाहिए, यह गोरखनाथ का उपदेश (कथन) है ॥२७॥ जो भरे हैं, ज्ञान पूर्ण हैं, वे स्थिर गंभीर होते हैं, अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते नहीं फिरते । जो अधकचरे हैं वे छलछलाते रहते हैं, चंचलतावश जगह घे जगह ज्ञान छाँटा करते हैं । (किन्तु उससे नाम किसी का नहीं होता) सिद्ध ऐसे लोगों से नहीं बोलते! हे अवधूत ! जब सिद्ध सिद्ध मिलते हैं, तभी उनमें वार्तालाप संभव है। उससे उन्हें लाभ भी होता है। भरा पान नहीं छलकता प्राधा ही छलकता है। लाधालन्ध, लभ्य, साधा ॥२८॥ (योगियों का कोई घरयार नहीं, सारी दुनिया उनका घर है। इसलिए ये सर्वन घूमते फिरते हैं । यह उनकी विरत का सूचक है किन्तु कुछ को देशाटन को ही चाट पड़ जाती है। इसीलिए गोरखनाथ का अवधूतों के लिए एक उप- देश है कि देश-देशांतर में जाना स्वयं देशांतर के उद्देश्य से आवश्यक नहीं है।) १. (ख) (ग), (घ) हबके ठबके । २. (ग) धीरा (घ) धीरे। ३. ( ख ) सहजै (ग) सहिजै । ४. (ख) यू भणत, (ग) यौँ बोल्या । (घ) यू बोल्या । ५. (घ) भरीया, (ग) भरया ६. (ख) झलझलंत (ग) झल झल- कत (घ) झलकत (ख), (ग) श्री (प) में इसके आगे 'ते' है । ७. (ख) सिधा सीध; (ग) सिंधा (सिंघां ? ) सिधि, (घ) सिद्धांसिध । ८. (ख) मिलिया। ९. (ख), (ग), (घ) मे 'रे' नहीं। १०.(ग) में नहीं। ११. (ख), (घ) अर; (ग) र । १२. (ख), (ग), (घ) में नहीं। १३. (ख) सुणो; (ग) सुणां; (घ) सुणौ। १४. (क) दिड; (ख) दिदि । १५. (ख), (ग), (घ) निवारौ। १६. (ख), (ग) दिसावर ।
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