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२५८ [गोरखम्बानी सरवा रे सरवा त्रिभवन थे गरवा । मन त्रिभवन सारिषौ । टेक । जगत मन को पसारो। मन काया गहै । उलटि फिरि पीर होय। निसपती जोगी काल भषै। गरुड़ मन, भयंगम । पान अषांन नान्ही कोयौ । २६ ॥ सोना त्यौ रस सोना ल्यौ। सुनारी कुनारी नहीं । सास उसास धमणि । गगन अंतह करण । टेक । मूल नाभि नाद अहरणि । विद काया । गगन ब्रह्म । अर्षे गगन भासण । विष कोयला । तावा सीला गुण न लीया। चंद सूर मन पवन सम । काम रती को स्वाद । मासौ मन उनमन मैं रहै। अरध उरध मन । तीन सुनि ब्रह्म मैं। उनमनी डोरी। मन तराजू । पवन गदियांनां । तोल्यौ ब्रह्म वराबनि ॥२७॥