२१८ [गोरख-बानी दिपणि हमारी डीबी पाकै, अगनि वलै मुलतानं । ऐसे हम जोगेस्वर निपना, प्रगट्या पद निर्वानं ॥४३॥ वाफ न निकसे 'द न ढलकै, सहजि अंगीठी भरि भरि रांधै । सिध समाधि योग अभ्यासी, तव गुरु परचै सांधै ॥४४॥ धीरजि थंभ जडोरि धुनि समानां असमानं । अटल दुलीचा अपै पद, जहां गोरष का दीवानं ॥४५॥ इति ग्यान तिलक दक्खिन ( मुलाधार चक्र ) में हमारी सरीबी थर्यात् पात्र गत खाद्य सामग्री पक रही है, प्रयोग-सामग्री कुंडलिनी तैयार हो रही है और भाग ( योगाग्नि) जल रही है मुलतान अर्थात उत्तर मूल-स्पान, ब्रह्म रन्त्र, शून्य में । इस प्रकार हम पोगेरयर बने और हमारा निर्वाय पद प्रकट हुमा ।।४३|| सहल की अंगीठी के द्वारा जब कोई इस प्रकार मर भर करके भोजन पकाये कि न तो उसमें से माप निकले, और न एक घूद जल का गिरे अर्थात् जब माधक इस प्रकार साधना करने में समर्थ होता है, कि न तो मद मोह लाम काम धादि भायनाएँ सिर उठा सकती है, और न विन्दु पात होता है; तब योगाम्यासी को समाघि सिद्ध होती है, और तब गुर भर्यात् मल परिचय के लिए घर-संधान करता है । (परिचय के पश्य की घोर भमिमुख होता है, अर्थात् अपना परिचय कराता है)|४|| माय पद धैय के साम्स (स्तंभ, यंम ) और तल्लीनता या पुन की के सहारे भासमान (शून्य) समाया हुया (अपार निरालम्ब) रन भासन दुखीया) है। पहीं गोरमा का दरमार लगा है, गोरम का दीवान .
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