२१७ , गोरख-बानी] नौ लष पातरि आगें नाचें पीछे सहज अषाड़ा। ऐसै मन लै जोगी लै, तब अंतरि बसे भंडारा ॥३॥ ग्यान कहै तो त्रिस्ना हारे, सूरज देषि पछांहीं। सतगुरु मिलै तो सांसा भागै, मूल विचारथा मांहीं ॥४०॥ अंजन माहिं निरंजन भेट्या, तिल मुप भेट्या तेलं । मुरति माहिं अमरति परस्या, भया निरतरि घेलं ॥४१|| जहां नहीं तहां सब कछु देष्या, कमां न को पतिआई। दुबिधा भाव तबै ही गइया, विरला पदां समाई ॥४२॥ योगी की रहनी' मध्यम मार्ग की होनी चाहिए । उसे भोग और स्याग में समरय रग्नना चाहिए । भोग्य पदार्थों के सम्मुख रहते हुए भी उसे उनमें श्रासक्त नहीं होना चाहिए । इसीलिए कहा है कि नौ लाख पतुरियां उसके भागे नाचती हों, और सहन ज्ञान-वैराग्य का अखाड़ा उसके पीछे हो। अर्थात् इन दोनों के बीच उसकी स्थिति हो । इस प्रकार की स्थिति में भी जब जोगी रमे अर्थात् साधना में रत रहे, तय उसका भीतरी भंडार भरपर हो सकता है ॥३६॥ मूलाधारस्थ सूय को सहस्रारस्य चन्द्र को मिलने के लिए पलाही अर्थात् सुषुम्णा-मार्ग-गामी देखकर अर्थात योगाभ्यास के द्वारा ज्ञान ग्रहण करने से तृष्णा नष्ट होती है। यदि सद्गुरु मिले, तो मूल तत्व का अपने हृदय में (माही=भीतर) विचार करने से संशय भाग जाय ||१०|| जैसे तिलों में तेल व्याप्त है, वैसे ही अंजन में निरजन | इस लिए जैसे तिल में से तेल ले लिया जाता है, इसी प्रकार मैंने (सिद्ध योगी ने) अंजन में, माया में निरंजन ब्रह्म को भेंटा है, और मूर्ति में अमूर्त का सरा किया है, और इस प्रकार निरंतर ( अवाभ्य ) आध्यात्मिक भानन्द (खेन) प्राप्त किया है ॥४॥ जो "नहीं" (शून्य ) है, वहीं मैंने सब कुछ देखा : (ब्रह्म ही से सारा विश्व प्रकट होता है, और यही विश्व में सार तत्व और तथ्य है, इस लिए यहाँ ब्रह्म को सब कुछ कहा है। ) कहने से इस बात का कोई विश्वास नहीं करेगा। उसी समय, शून्य का साक्षात्कार होते हो, विरल कैवल्य पद में समा कर मेरा द्वैत भाव मिट गया, मुझे शून्य के,बर के साथ तादात्म्य का अनुभव हो गया ॥४२॥
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