२१४ [गोरख-यानी यंद्र मित्यां तें धरती निपजै, यंदी वरपै देही । गुरू हमारा वांनी बोली, माणिक चुगि चुगि लेही ॥२७॥ पाथर मैं पारस भविनासी, ज्यू असट धात में सोनां । यूं सब जुग मांहिं समझि अविनासी, ता घंटि पाप न पूनां ॥२८॥ बहती नदी भाव भरि थांभी, सूरिज देषि पछांहीं । दुलभ देवल मन अगोचह, ता बेल्यां फल षांही ॥२६॥ नव लख किरणि अपूठी प्रकटी, कोटि किरणि मुषि आगै। कहै नाथ धरम का पेंदा, संसं वूद न लागै ॥३०॥ बन ( अमृत ) का मरना ब्रह्माग्नि के ऊपर बरसता है, और हमारे उद्यान को सींचता है, अर्थात् विद्याग्नि (हमारी प्रदानुभूति) को और भी बढ़ाती है। इस रहनी से पैगंबर (अध्यात्म के ज्ञानी और प्रसारक ) उत्पन्न होते हैं, और संसार (मायिक वृत्तियों) पोपण के अभाव के कारण (तृपांत हो कर) मर जाता है ॥२६॥ फे मिलने से (इन्द्र जन्न का देवता है, इसलिए, बल से ) धरती में अस श्रादि उत्पन्न होता है, इसी प्रकार इन्द्रियों जब अनुकूल वर्षा करती है (अंतसुस हो जाती है ) तय देश में ज्ञान उत्पन्न होता है, मोर शान-मुक्ता सुगने को मिल जाती है। हमारे गुर ने यह यायो कही है, यह गुर की शिक्षा ॥ २७ ॥ में पायर में प्रपिनरवर स्पर्श मणि का निवास है, जैसे भाठों धातुभों में माने का निवास ६, ऐसे मारे संसार में अविनाशी परमहा को व्याप्त ममम् । (शिपने प्रारद पा लिया है,) उसके घट (शरीर) में पाप और पुरप नही २॥ सूरत को पमान ( भग्न होता हुमा ) दम पर अर्थात् मूबाघरा सूप मुगुम्या मागं में (पदा ) मानाय पन्द्र से गोग के लिये जाना हुधा दर पर भाव में मरी दुई (प्रपांग याहमुंग मनाति र) नही लमिन प्रधानमनगी । म यह गरीर दुलमान को प्राप्त हो गया, मिड- सपा और पो मा भगोदर परमर हो गया । इस प्रकार योगी इम मापा मनकि पन्ट की माने ॥२३॥ नारमो. (योग) के मार्ग पर चरन में दि मात्र मी साधक को
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