गोरख-बानी] २१३ बोले नाथ गगन घर वासा, अंतरि बसीया जाई। परम पुरस मेरै कागद मांड्या, दिन दिन कला सवाई ॥२२॥ ऐसे रमहुँ जैसे नष सिष भेदै, संक्या सरीर न लुटै। चलत फिरत पद माहिं समावें, जामण मरण भै छूटै ॥२६॥ मरि मरि जाय सुसंसा मांहीं, तन का मरम न पाया। समभया होय तो पद पँथ औरें, धोपै जनम गमाया ॥२४॥ या पद की कठिन है करनी, केवल-मता पुरुष की रहनी { सोई।।
- या रहनी ते पारस निपलै, लोहा कंचन पद भेट्यां पद होई ॥२५॥
नीझर नीर अगनि मुषि बरर्षे, सींचै बाग हमारा। या रहनी त पैकंवर निपजै, तिसिया मरै सँसारा ॥२३॥ . में आत्मा (हंस) ऐसा बिलम गया है, कि शुक्र के सरोघर में बांध हो गया है, जिससे एक बूंद भी ढलकने नहीं पाता है, पूर्ण ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठित हो गया है॥२१॥ नाथ कहता है, कि गगन-रूप घर अर्थात् त्रिकुटी या प्रझरन्ध्र में हमारा निवास है। इस प्रकार हम अपने भीतर जाकर बस गये हैं। हमारा परम पुरुष रूप कागज (लेखा) तस्यार (मंडित ) हुआ है, और उसकी कता दिन- दिन बढ़ती आती है अर्थात् माध्यास्मिक अनुभूति बढ़ती जाती है ।। २२R इस अनुभूति में इस प्रकार रम जाओ, कि वह नख से शिख तक सारे शरीर में मिद जाय, और शंका को लूटने न पावे, (माया का प्रभाव न रहे। ऐसा समाधि जग जाय, कि ( केवल ध्यानावस्था में ही नहीं, ) चलते-फिरते, (हर घड़ी) ब्रह्म पद में समाये रहो, जिससे जन्म-मरण का भय छूट जाम ॥२३॥ जो संशय ही में मर-मर जाते हैं, उन्होंने शरीर का मर्म नहीं पाया। समझे का (ज्ञानी का) स्थान और मार्ग हो दूसरा है। संशयामा तो धोखे में अपने जन्म को गधाते रहते हैं ॥२४॥ इस पद (ब्रह्म पद ) की करनी, जो कैवल्य में मति रखने वाले (कैवल्प मत वाले ) पुरुष की रहनी है, कठिन है। इस रहनी से पारस मणि पैदा होता है, जिसके कारण लोहे को कंचन पद प्राप्त होता है, जो उसका वास्तविक पद है। प्रर्याद इसी रहनी से सामान्य नर ब्रह्मत्व को प्राप्त होता है, जो उस को वास्तविकता है ॥१॥ ३०