२१२ [गोरख-बानी घासा तृष्णां थिर है वैठी, पद परचै सुष पाया । सूकै तरवर कूपल मेल्दी, यहि विधि निपजी काया ॥१॥ पूरब देश पछांही घाटी, (जनम) लिष्या हमारा जोगं । गुरू हमारा नांवगर कहीए, मेटै भरम विरोगं ॥१६॥ नव ग्रह मारि अगनि मुषि झौंफ्या, दुदरहि लग्या डोरी। परम पुरुप पिंजरि बिलंच्या, भई अगम गति मोरी ॥२०॥ अकथ कथ्या अनअप्पिर दांच्या, अगम गवन करि लीया। हंस विलंव्या द न ढलकै, वहि सरवा बँध दीया ||२१|| है . घानन्द मनाता | वह परिस्थित ( चौमासा ) जिसमें पारमा (घातक) अपने प्रिय (पादन अर्थात् परमात्मा के) अभिमुख होती है अय स्वयम् पारमा (घातक) के अन्दर हो उपस्थित है, साधक को ऐसो सुन्दर तु ( समा) उपलब्ध है॥१७॥ धाशा और तृष्णा जब अपने चंचल स्वभाव को छोड़ कर स्थिर हो कर बैठ जाती है, अर्थात् अपनी माथा और तृप्या में जब थक जाती है, तष पद अर्थात् ब्रह्म-सापाकार का सुख मिलता है, इस प्रकार माया का यदे प्रसार वाला वृपा सूख जाता है; और भाभ्यात्मिकता की नवीन कोपलें निकल पड़ी है, और इस प्रकार काया निष्पन्न होती है, अर्यात् उसका वास्तविक साफल्प होता है ॥१८॥ प्राण (पूर्व) हमारा देश है, और सुपुम्या (पाही घाटो) आने-जागे रा मार्ग। जन्म ही से हमारे भाग्य में योग लिखा है। हमारे गुरु हमारे (भवसागर से मारने वा) नापिक के समान है, घे हमारे प्रमादि रोगों की मिटा है ॥१॥ नयमों को मार कर मैंने राग में झोंक दिया है, ज्ञानोदय में प्राय प्रह योगों हे मले पुरे परियाम से मैं पूट गया है। माया (इंदरहि) के बीच में भयान सग गया है। परम पुगर (म) इस शरीर रूप पक्ष में विमा हुग्रा , इस प्रकार मेरी चाय गति सन मुरि हो गई है।॥ २० ॥ कोशी नदीमा पानी पी अपवास को विना अक्षरों की पोल पिपा. राम पर पर पहुंच गया है। पपया अपन परमादरपर
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