गोरख-बानी] या रहनी मैं घर घर वासा, जोग जुगति कर पाया। सिध समाधि पंच घर मेला, गोरष तहां समाया ॥१५॥ हाली भीतरित निदाणे, बगु मैं ताल समाई। बरफ मोर कहकै सावण, नदी अपूठी आई ॥१६॥ गऊ पद माहीं पहोकर फदकै, दादर भर थ मिला। चात्रिग मैं चौमासौ बोले, ऐसा समा हमारे ॥१७॥ लियों वाला है, किन्तु जिस पद रूप मन्दिर में (पर्य) पुरुष (परमा) बिलम रहे हैं, वही मन्दिर मेरा घर है, अर्थात् मोके पंजे से बाहर निकल कर मैं ब्रह्म पद में समा गया हूँ॥१५॥ इस प्रकार की अर्थात् स्त्री (माया) रहित रानी से मैंने योग को युति के द्वारा अपने वास्तविक घर (ब्रह्म पद) में घर-वास ( निवास) पाया है, और पूर्ण समाधि के द्वारा पंच ज्ञानेन्द्रियों को घर (पर-ब्रह्म पद में बाबाला है, अर्थात् उसे अंतर्मुख कर दिया है, जिससे कोई यह नहीं जान सकता, कि गोरस कहाँ समा गया है ।।१५॥ हाली (हलवाना, किसान, उद्धारकामी जीव, साधक) सामान्य अवस्था में खेत निराया करता है, (विवेक के द्वारा भात्म-बुद्धि को रक्षा करता है, अनारम-शुद्धि को दूर कर देता है) मन रूप बगले की ताल रूप बाम मानन्द कोदा की सामग्री उसके अन्दर समा गई है। उसको वृत्तियाँ भन्तर्मुख हो गई हैं, और अब उसे बाहर आनन्द मिलने की जगह भीतर मानन्द मिलने लगा । सामान्य अवस्थाओं में माया रूप सावन की वर्षा होती है और मनमयूर उसमें मानन्द ध्वनि करता था, किन्तु अब मन-मयूर बरस रहा है, अपनी बहिर्मुख वृत्तियों को वर्षा अर्थात् त्याग कर रहा है और माया रूप सावन भी अपनी बन्धन वृत्ति को छोड़ कर मुक्ति-दायिनी विया स्वरूपा होकर अपने जगत के रूपों की ओर बहती चली जा रही थी निरुद्ध हो कर वापस ( पृष्ठ पु-(अ+ ) पठा+ई) अपने में (भारमा में ) लौट भाई ॥ १६ ॥ पहोकर (पुफरतालाब ) गो-पद में फरकता (स्पंदित तस्ति होता) है, अर्थात् साधक का स्थूल अस्तित्व सूक्ष्म धारिमक जीवन में समा जाता है। उस सूक्ष्म जीवन में मी सूचम मन (दादुर मेंढ़क और मरंथ वहीं मोर) है
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