W सके उपर गोरख-बानी] अलष विनाणी दोइ दीपक' रचिलै तीन भवनर इक जाती। तास बिचारत त्रिभवन सूझै चुणिल्यौ माणिक मोती ॥५॥ वेदे न सास्त्र कतेवे न कुरांणे पुस्तके न ब'च्या जाई । ते पद जांना विरला जोगी और दुनी' सब धंधै लाई ॥६॥ हसिबा षेलिबा रहिबा रंग। काम क्रोध न करिबा संग ॥ हसिबा षेलिबा गाइबा गीत । दिढ११ करि राषि आपना१२चीत ३॥७॥ के नीचे ले पाये हैं। उन्होंने तो सत्य को प्रकट करने के बदले आवरण डाल दिया है। (यदि ब्रह्म के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान तुम्हें अमीष्ट है तो) ब्रह्मरन्ध्र ( गगन शिखर ) में समाधि द्वारा जो शब्द प्रकाश में आता है, उसमें विज्ञान रूप धलक्ष्य परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करो ॥४॥ विज्ञान स्वरूप प्रलय परब्रह्म ने दो दीपकों ( व्यक्त और अव्यक्त स्वरूप- सविकल्प और निर्विकल्प समाधि) की रचना की। उन दोनों दोपकों में अलचय का ही प्रकाश है। उसी एक ज्योति से तीनों लोक व्याप्त है। उस ज्योति पर विचार करने से तीनों लोक सूमने लगते हैं, त्रिलोक-दर्शिता आती है। और हंस-स्वरूप प्रारमा ज्ञान-रूप मोतियों को चुगने लगता है तथा उसे माणिक्य रूप कैवल्यानुभूति हो जाती है। बिनाणीं विज्ञानी ॥२॥ वेदों, शास्त्रों,-किताबी धर्मों की किताबों, कुरान आदि ग्रन्थों में जिस पर-ब्रह्मपत्र का वर्णन नही पढ़ा जा सकता, उस पद को घिरले योगी जानते हैं। बाकी दुनिया तो माया में लिप्त होकर धंधों ही में लगी रहती है ॥६॥ हँसना चाहिए, खेलना चाहिए, मस्त रहना चाहिए किंतु कभी काम- क्रोध का साथ न करना चाहिए । हँसना, खेलना और गीत भी गाना चाहिए किंतु अपने चित्त को हद करके रखना चाहिए ॥७॥ १. (ङ) दोपग। २. (क) तीनि भुवन। ३. (ख) वीचाऱ्या, (ग) विचारी । ४. (ख) त्रभवन नीपजै । ५. (ख), (ग), (घ) चुणि लै ६. (ग) पुस्तगे। ७. (ख), (ग), (घ) लिण्या । ८. (क) जाणंत; (ख), (ग) बाचत । ६. (क) में 'दुनी' नहीं है। १०. (घ) 'न करिबा' के स्थान पर 'का तजिबा'। ११. (ख) डिदि। १२. (ग) आपणां; (घ) अपणां । १३. (ख) च्यंत; (ग), (घ) चित।
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