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२ [गोरख-बानी अपि देषिबा देषि बिचारिबा अदिसिटि' राषिबा चीया | पाताल की गंगा ब्रह्मड चढाइबा, तहां बिमल बिमल जल पीया ॥२॥ इहां ही श्राछै इहां ही अलोप । इहां ही रचिलै तीनि त्रिलोक । पाछै संगै रहै जू वा । ता कारणि अनंत सिधा जागेस्वर हूवा ॥२॥ वेद कतेब न षांणी वांणीं। सब ढंकी तलि आणी ॥ गगनि सिषर महि१प सबद प्रकास्या । तहं बूझै१२ अलष बिनाणीं ॥४॥ न देखे हुए ( परब्रह्म ) को देखना चाहिए। देख कर उस पर विचार करना चाहिए । जो आँखों से देखा नहीं जा सकता उससे चित्त चीज, चीय ] में रखना चाहिए। पाताल (मणिपूर चक्र) की गंगा ( योगिनी शक्ति, कुंडलिनी ) को ब्रह्मांड (ब्रह्मरंध्र, सहनार या सहस्रदल कमल) में प्रेरित करना चाहिए । वहीं पहुँच कर (योगी साक्षात्काररूप) निर्मल रस पीता है ॥२॥ अक्षय (आछै) परब्रह्म यहाँ अर्थात् सहस्रार या ब्रह्मरंध्र (शून्य) में ही है। यहीं वह गुप्त ( अलोप) है। तीनों लोकों की रचना यहीं से हुई । (ब्रह्म का ही व्यक्त स्वरूप यह ब्रह्मांड है। ब्रह्मरंध्र रूप केंद्र ही से उसने अपना सर्वदिक् प्रसार किया है।) ऐसा जो अक्षय परब्रह्म सर्वदा हमारे साथ रहता है, उसी के कारण ( उसी को प्राप्त करने के लिए) अनन्त सिद्ध योग मार्ग प्रवेश कर योगेश्वर हो जाते हैं। अलोप-गुप्त । निषेध वाचक 'अ' का बहुधा जन साधारण की बोली में व्यर्थ ही श्रागम हो जाता है। उस का कोई अर्थ नहीं लिया जाता; जैसे वृथा के लिए अविर्या ॥३॥ (परब्रह्म का ठीक ठीक निर्वचन ) न वेद कर पाये हैं, न किताबी धर्मों की पुस्तकें और न चारों खानि की वाणी । ये सय तो उसे पाच्छादन ( ढंकी) १. (क) अदृष्ट ; (ख) अदिसीटी ; (ग), (ब) अदिष्टि । २. (क) चिया । ३. (ख) गंगा ब्रह्म । ४. (घ) अछिक ; (ग) अषय । ५. (घ) अलोक। ६. (घ) अछ संगि, (ग) अछे संगै । ७. (घ) अनेक राजा । ८. (ख), (घ) वेदे न कतेवे। ९. (ख), (घ) षांणी न वाणी । १०. (क), ढांकी; (ग), (घ) ढाकी । ११. (ख) गीगनी चढ़ि; (ग) गगन सिपर चढ़ि । १२. (घ) बूझिलै; (ग) बूझिले।