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१७६ [गोरख-बानी भींतरि' राजा झूमरण हार । चहुँदिसि जाता राष्या मार। राजा झूझै विषमै घाइ । मन पवन ले रहै समाइ ॥११॥ मन पवन की बिषमी संधि | चंद सूर द्वै समिकरि बंधि । नवसे नवासी सायर सोफै। जोगी सोषैः सदा भरि षोः ॥१२॥ चिन पुस्तक वंचिबा पुरांण । सुर्खतीतचरै ब्रह्म गियांन । अमर सोपे बजर'3 करै । सर्व१४ दोष काया ले हरै ॥१३॥ धेरै पोजै१५ लावै बध । तौ अजरावर थिर है कंध । सोष पोष जालें बालें। अह निसि ब्रह्म अग्नि परजाले ॥१४॥ । युद्ध करने वाला राना (श्रात्मा) भीतर है, जिसने चारों दिशाओं में मागने वाले मन को मार कर भीतर सुरक्षित रक्खा है। राना (आत्मा) कठिन (घावों को सहता हुमा ) युद्ध करता रहता है, और मन पवन का योग कर योग-लीन रहता है ॥११॥ मन पवन का मेल कठिन है । इसीलिए चंद और सूर्य को सम करके एक में बाँध दो । योगी शुक्राधियय से विचलित नहीं होता । वह नौलौ नवासी सागरों को (अर्थात् अपरिमित शुक्र को) शोप लेता है, ऊध्र्वगामी बना देता है, और खालो स्थान को फिर भर देता है। पोपै=(शुष्क, खुरुख) खोखलेको ॥१२॥ योगी को शिक्षा के लिए पोथी-पुराण पदने की अावश्यकता नहीं रहती। स्वयं सरस्वती उसके हृदय में बैठकर ब्रह्मज्ञान का उच्चारण करती है, जरा विरोधी शुक्र को शोपण (अर्थात् ऊर्ध्वगामी बना) कर पत्रोली मुद्रा साधे, और काया का सय दोप नष्ट कर गले ॥१॥ (बो अमृत) क्षरित हो रहा है, उसे खोज कर (जालंधरादि) बंधों के (द्वारा उसके नाश को रोके) तो अपर अमर होकर शरीर (कंद, कंध, , १. (क) मीतरि । २. (घ) झूमण । ३. (क) मारि । ४. (घ) विषमी घाय"रधा समाय । ५ (घ) पवनां । ६. (घ) सिंधि। ७. (घ) दोऊ।८. (प) नो निवासी । ६. (घ) सोपि । १०. (घ) पोपे (अ) 'भरि पोधे का प्रर्य पुनराप्रयति करता है। ११. (घ) विणि पुस्तगि । १२. (घ) सुरसती । १३. (क) प्रत्र साप यत्र । १४. (क) श्रय । १५. (घ) सोपे। १६. (८) अज- रावर पिरि होय । १७. (घ) अगनि प्रनाले ।