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१७२ [गोरख-बानी सभा देषि मांडौ मति' ग्यांन । गूंगा गहिला होइ रहौ अजाण । छाड़ौ राव रङ्क की आस । भिछया भोजन परम उदास ॥११॥ सींगी नाद पयांनां देह । देव कला के लछिन लेह । जग ज्यू ध्यांन मांडि जिनि रहो । स्वान जती की निंद्रा गहौ ॥१२॥ रस रसाइन गोटिका निवारि । रिधि परिहरौ सिधि लेहु विचारि। परहरी सुरापांन अरु भङ्ग । तातै उपजै नाना रङ्ग ॥१३॥ माडौ=मंडन करो, संवारो, सजानो, अर्थात् सुनायो (असम से । ) सारी, सारिका, मैना, भक्त जन मैना पालते हैं और उससे राम नाम बुलवाते हैं । काँगुरी, चिकारा, छोटी सरगी ॥१४॥ . । १. (घ) बैसि जिनि मांडौ। २. (घ) गहला होय । इस चरण के आगे (घ) में ये चरण अधिक हैं- साषी सवदी जस जिनि करौ । रबि ससि दोऊगहि करि धरौ ॥१८॥ उत्म मधिम छाड़ी व्यौहार । सब घटि ऐक यात्मां सार ।। ३. (घ) में यह चरण यों हैं-राव रंक की करौ जिनि आस । ४. (घ) फिरौ । इस चरण के आगे (घ) में ऊपर दिये पाठ के १३ वें श्लोक के प्रथम दो चरण हैं और फिरि इतना अधिक है। राइ कै मन धीरज भया आनन्द । यण पर ऐ, ऊग्या पिंड ॥२०॥ हंस गवनी चलो तुम वाट । उतरौ चढ़ौ जिनि औघट घाट । ४. (घ) में यह चरण यों है-वग ज्यू ध्यांन!णि दिन करो। और फिर इतना अधिक-मन मुपि चंचल गति परहरी, स्वांन तणां तुम लछिण सोवौ । थिरि दिष्टि निज मन करि जोवौ ॥२२॥ सहनें लैंणा परहरौ उपाधि । जोगस्तन यण पर साधि । ५. (घ) में इसके अागे इतना अधिक है- नारी चोरी परहरी मिथ्या । एता श्रारम्भ सतगुर कय्या । पहल करम तणां फल होय । दोय कर जोडि लेहु सब जोय ॥२४॥ ऐसा एक वायक सतगुर कहे । कनक कामणी परहरि रहे। प्रारम्म जोग सुणी तुम राय । सति उति भापंत श्री गोरप राय||२५॥