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[गोरख-बानी सबद एक जै प्रगट कहूँ सतगुर होई लषावै । गुहज्य नाम' अमीरस मीठा जो षोजै सो पावै ।।। गंगा जमुना तबेणी संधी। अजपा जपो गावत्री बन्धी। पदया नीर उरध अस्थांनां । हिरदा पंकज मैं रहै समांनां ॥६॥ नाद बिंद गांठि प्रवांनां । कवण घटि जोति कवण अस्थांनां ।। कहाँ निरंजन बासा करहीं । कहाँ काली नागनी मीड़क धरहीं ॥१०॥ कहाँ जलधर पवनां मेला । उद्र कहां विलइया घेरा॥ सींगी नाद कहां जोगी पूरा । जीत्या संग्राम पुरिष भया सूरा ॥११॥ पूनम चंदा कैसे छीनां । रवि ससि फेरि पवन घरि कीनां । सुपि. इंद्री काम न गहई । ता कारणि जोगेस्वर परलै ढहई ॥१२॥ - जिस एक शब्द को मैं प्रकट रूप से कह रहा हूँ उसे सद्गुरु ही दिखा सकते हैं । अमृत रस मीठा है परन्तु उसकी विशेषता यह कि वह गुह्य (गुप्त) है। उसे वही प्राप्त कर सकता है जो उसकी सच्ची खोज में लगता है ॥८॥ बन्धी, बंधकर, लग कर, तल्लीन होकर, संयत होकर । पदया नीर=(अ) में इसका अनुवाद "पद्गम्य नीर" किया गया है । नीर तो विंदु है किंतु 'पदया' का अर्थ संदिग्ध है। पांवो से इसका संबंध लगाने से इसे गमनार्थक मानना चाहिये जिससे सारे चरण का अर्थ होगा, शुक्र को जन्वं स्थान में पहुँचा कर अर्थात् कचरेता हो कर ॥६॥ नाद और विंदु को प्रामाणिक रूप से प्रथित करें । ज्योति किस घट में है ? उसका स्थान कहाँ है निरंजन का निवास कहाँ हैं ? काली सर्पिणीरूप माया जीवात्मा रूप मेढकों को कहां पकड़ पकड़ कर खाया करती है ? ॥१०॥ ऊर्व रेत ( जलंधर ) का पवन से मेल कहाँ होता है ? चुहे (उद्र) को (अर्थात् जीव को कहाँ विरली ( अर्थात माया ) घेरती है। जोगी सिंगी नाद (थनाहत नाद ) कहां बजाता है ! जहाँ संग्राम को जीतकर शूर (साधक) पुरुष (सिद्धि) हो जाता है ॥११॥ १. संभवतः (अ) ने गुहल्प या गुहजप (गुह्यजप) पाठ स्वीकार किया है क्योंकि उसमें इसका अर्थ 'गुह्यनामाभिमंत्रण ( यथावत् पाठ) किया गया है, 'अमीरस मीठा' छोड़ दिया गया है।