0 गोरख-बानी] १६१ अजर कथा नहीं बाद विवादं । अनाहद सींगी वाइबा नादं । संतोष तिलक तहांरपद नृवाणं । ब्रह्म कवल टोपी पहरिबा त्रांणं। मन बैरागः मुंद्रा जोइ रूपं । बदंत गोरष ए तत अनूपं । दया दंड, तहाँ तृकुटी ध्यांनं । छिमा' लाठी टेकिबाx मांनं । चंद सूर भाटी उजेबा धारं११ । मुरै२ गगन तहां होइ१३ मतिवारं। सोजोग्यंद्र जोग जुगता अविचल'सारं । छछंद मुक्ता भै भ्रमपारं। दोइ पछि ब्रह्म विद्यबा सुलं । गुर बचन अनाहद मांनिवा मूलर ब्रह्म कवल-सहस्त्रार । मुद्रा जोइ रूपं =रूप का दर्शन ( ज्योति दर्शन ) ही मुद्रा उजेबा=(अ)-प्रज्वाजनीयं (यथावद, प्रज्वालनीयं ।) संभवतः भवके से उठा कर चुभाना चाहिये । उमरना (उत्सरण) । शराब उतारने में पहले वाष्प- प्रक्रिया से मदिरा उपर उठती है और तब फिर नली के द्वारा दूसरे पात्र में गिरती है। जरै भ्रम पार = इस प्रकार माकाश में करते हुए महारस अमृत रूप मदिरा) का पान कर जो मतवाला हो जाता है, वह योग से युक्त अर्थात् पूर्ण योगीन्द्र है। वह सार ( अनुभव अर्थात् आत्मा में भचल रहता है ) और भय मोर भ्रम को पारकर स्वच्छन्द मुक्त ( विचरण करता है।) दोइ पछि मूल = ब्रह्मांड द्वरत पक्षी है, द्वैत के ऊपर अवलम्वित है,इसे दुःख नानो । गुरु की शिक्षा के आधार पर अनाहत नाद को उसका मूल मानो अथवा जैसा संस्कृत अनुवाद कहता है, गुरु पचन को अनाहत मानो। निरालं=निराले या निरपेक्ष । १. (घ) बजायबा । २. (घ) में 'तहां' नहीं। ३. (क) नृवाणं; (घ) निरवांण । ४. (घ) कंवल । ५. (घ) त्राणं; (क) प्रांण। ६. (घ) बैरागी। ७. (घ) जोयवा । ८. (घ) गोरषनाथ; (क) में 'ए' नहीं है । ६. (क) डंड । १०. (क) क्षिमा । ११. (घ) जायबा । १२. (घ) झरे । १३. (घ) है । १४. (घ) ते जोगी; (क) सो जोज्ञद्र । १५. (क) अवचल । १६. (घ) छछंम मुक्ता १७. (घ) दोय । १८. (घ) बंदिवा रं । १९. (घ) सबद । २०. (घ) x(अ) त्यागः । जिस प्रति से संस्कृत अनुवाद हुआ है संभवतः उसमें 'त्याभिया' या इसी प्रकार का कोई पाठ रहा हो । ® (अ) वृक्षो ।
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