गोरख-बानी] १५५ [ राग रामगरी] मन रे राजा राम होइलै मृदंद, मूलै कमलै साजि ले रविचंद ॥टेक।। अनहद भौरी भई तृबेणी के घाट, पोयले महारस फाटिले कपाट १११ चंदा करिले पुटा, सुरजि करिने पाट, नित उठ धोबी धोवै, तृवेणी के घाट ।। भरिले नाड़ी घोड़ी, परिलै बंक नालि । बदंत गोरषनाथ अवधू, इम उतरिबी पारि। ३ ॥५६॥ गोरष बालूड़ा बोलै सतगुरु बांणी रे। जीवता न परण्यां तेन्हें अगनि: न पाणीं ॥ टेक ॥ षीलो दूझ भैसि बिरोलै, सासूड़ी पालन३५ बहुड़ी हिंडोले ११॥ . हे मन परमझ होकर निद्वन्द्व हो ना। मूलाधार चक्र में रहनेवाले स्य' को सहस्रार चंद्रमा में सजा अर्थात् सूर्य और चन्द्रमा का योग कर । त्रिकुटी में अनाहत रूप भ्रमर गुंजार कर रहा है। यहाँ ब्रह्मरंध्र के कपाट खोल कर महारस अमृत का पान कर । चन्द्रमा को तो घना ले पोटने को लकड़ो और सूर्य को वह तख्ता या शिला जिस पर धोबी कपड़े पीटता है । इस प्रकार धोबी (साधक) नित्य प्रति उठकर कपड़े धोवे अर्थात् जीवात्मा का मैक छुपावे, माया को दूर करे । सदोष (खोड़ी) नादियों को वायु से भरकर शुद्ध करते हुए यंक नालि सुपुरना को वायु से भरो । गोरखनाथ कहते हैं कि हे अवधूत इस प्रकार पार उतरों ॥१६॥ बालक गोरख सद्गुरु की ( सदगुरु से प्राक्ष की हुई ) पाणी बोलता है। ( गोरख ने ) नीते को ( परब्रह्म ताव को जो सब जीवों में सार है ) परिणीत किया है, ( उससे गठनोरी को है। ) इसी से (इसके लिए) न ाग है, न पानी (बह भग्निभय और जजमय दोनों से बाहर हो गया है।) (पहले माया की कीली पर बंधी हुई मनसा रूप मैंस हो लौकिक मानन्द • केवल (क) में। १. (क) गोर्ष । २. (क) में 'बोलै नहीं। ३. (घ) ताने । ४. (क) अग्नि ५. (१) पालणे । ६. (घ) बहूड़ी हीडोले ।
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