[गोरख बानी अचरा न'चरै धेन कटराग्न पाई। पंच ग्वालियां कौमारण धाई १३ याही घेन५ का दूध जु मीठा । पीवै गोरपनाथ गगन बईठा४॥५१॥ आवै संगै जाइअकेला । ताथै गोरष राम रमेला ॥ टेक ॥ काया हंस संगि है भावा' । जाता जोगी किनहूँ न पाया ११॥ जीवत जगमै मृषांप२ मसाणं । प्रांण पुरिस कतकीया पयाणं ।। जांमण मरणां बहुरि विओगी । ताथै ५गोरष भैलाजिोगी।॥५२॥ बारह (कला वाला सूर्य) बछडा है और सोलह ( कला वाला चन्द्रमा) गाय । (गोरख का वचन है-'पारह कला सूरज, सोलह कला चंद । गुरु जिसका लपावै नहीं, पेला तिसका अंध'-'रोमाषनी अन्य' )। इस गाय को दुहाते दुहाते रात बीत गयो ( अर्थात् प्रभात हो गया है, शज्ञानांधकार मिट गया है और ज्ञान का प्रभात हो गया है।) यह गाय अचर है (स्थिर है । ब्रह्मानुभूति चंचल नहीं होती।) पांच ज्ञानेन्द्रिय रूप पाँच ग्वालों को ( जो इस ब्रह्मानुभूति अथवा अमृत पान ) रूप गाय को अपने अधीन रखना चाहते हैं, वह मारने दौड़ती है। इस धेनु का दूध ( अमृत ) मीठा होता है। गोरखनाथ उसे श्राकाश में बैठा बैठा पीता है ॥५१॥ जोवारमा इस जगत् में (शरीर के ) साथ प्राता है किन्तु जगत से बाता है यह अकेले ही । इसी से गोरख राम में रम रहा है (दुनिया के बंजाल में नहीं फंसा )। काया के साथ तो हंस (धारमा) आता है, किन्तु जाते हुए जोगी (धारमा ) को कोई पाता नहीं भर्याद कोई यह नहीं जान पाता कि शरीर को छोड़कर आत्मा कहाँ और किस रूप में चला गया है । जीविता- वस्था में जो जगत में था और मरने पर जो श्मशान ( बन गया) उस प्रास पुरुष ने को प्रयाण किया ! (इसको कोई नहीं जानता।) इसलिए गोरम- नाय जोगी हो गया है। मोर जन्म मरण से विमुफ हो गया है ॥१२॥ + सर्वागी अंग ११५, पद ५, राग भैरौं । १. (घ) और सर्वानी में 'न' नहीं । २. (घ) कचरा । ३. (घ) ग्वालिया • ४. (घ) प्याई । ५ (घ) यन सुरही। ६. (घ) जे । ७. (घ) गिगन । ८ (घ) जाया । ६. (4) पाया पाया । १०. (घ) किनहुँ। ११. (घ) जुग । १२.(घ) मुंवां । १३. (५) कित । १४. (घ) वहीदि वियोगी । १५. (घ) गर्थे । १६. (4) मला।
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