गोरख-बानी]] १४७ गरड़ भुवंगम संमि' करि सूता । देव द्वार रस मरी पूता । मर्दत मदत है है। पीठी । ते बात गोरष प्रतषि दीठी ।४||५०|| बांधौ बांधौ बछरा पीओ पीश्रो पीर । कलि अजरावर होइ सरीर ।।टेक आकास की धेन बछा जाया। ता पेन के पूछ न पाया ॥१॥ बारह बछा सोलह गाई । धेन दुहावत' • रैनि विहाई ॥२॥ अब प्राय और कुण्डलिनी (गा और सर्पियो ) के ब्रह्मांड में सामंजस्य स्थापित हो जाने पर मन सो जाता है तब ब्रह्मरंध्र में पहुंध कर बच्चे का (मन का) मैं रस अमृत के साथ मदंन कला । इस प्रकार मदन करते करते पीटी के समान सूधम हो जायेगा इस बात को गोरखनाथ ने प्रत्यक्ष देखा है, उसका उसे अनुभव है। सदरम, रुधिर ॥५०॥ बछड़े (मूलाधार चक्र में स्थित सूर्य, जो अमृत का शोषण करता रहता । यह मन के निम्न, चंचल, द्रोही स्वभाव का भी घोतक है। जब तक सूर्य अमृत का शोषण करता है तभी तक मन को यहिर्मुख प्रवृत्ति रहती है।) को बाँध लो और दूध (अमृत) को स्वयं पी जायो। इससे कलिकाल में तुम्हारा शरीर अवर और अमर हो जायगा । जब योगाभ्यास द्वारा सहस्रार स्थित चन्द्र भौर मूलाधार स्थित सूर्य का मेल हो जाता है तब अमृत का शोषण रुक जाता है और साधक उसका स्वयं पान कर सकता है जिससे शरीर अजर अमर हो जाता है। बीज रूप से ब्रह्म का निवास समी चक्रों में है अतएव एक प्रकार से मूवाधारस्थ सूर्य जो ऊपर बढ़ा कहा गया है उस ब्रह्म- पद अथवा सहस्रारस्थ चंद्र हो से उद्भूत हुआ है। इसलिए वह ब्रह्मरूप या चन्द्ररूप गाय का बना है। मन का भी मूल अधिष्ठान आत्मा ही है। अानंद का उपभोग (दुध पोना) मासान हो जायगा । यह चन्द्रमाव-पान, ब्रह्मानुभूति या समाधि त्रिकुटी या ब्रह्मरंध्र (अाकाश ) ही में सम्भव धेनु के न पत्र है न पाव । (क्योंकि वह कोई स्थूल वस्तु नहीं।) १. (घ) भुयंगम समि । २. (घ) श्रौदम्र । ३. (घ) मरदत मरदत होई है ४. (घ) भीगोरखनाथ । ५. (५) पीवौ पोवौ धीर ..१६. (घ)अजरांवर होयसरीरं ७. (५) आकास की धेन त्रिभवन के राया। सींग न पूंछ वाकै पुर नहीं काया। सर्वागी में ये दो चरण नहीं हैं ! (घ) में इनका स्थान टेक के बाद तीसरा है। ८.(घ) बछड़ा। ९. (घ) सर्वांगी; धेनि । १०. (घ) दुहांवत । ११. (घ) रैंणि। है
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