गोरख-बानी] १४५ गुरू पोजौ गुरदेव' गुरूषोजौर, बदंत गोरष ऐसा, मुषते होई तुम्हें बंधनि पड़िया, ये जोग है कैसा ।१॥ चांमही चांम घसंतां गुरदेव दिन दिन छीजै काया, होठ कंठ तालुका सोषी काढ़ि मिजालू षाया ।। दीपक जोति पतंग' गुरदेव', ऐसी भग की छाया, बूढ़े होइ तुम्हे १२ राज कमाया नां तजी मोह माया ॥३॥ बदंत गोरपनाथ सुनहु१४ मछंदर तुम्हें१५ ईश्वर के पूता, ब्रह्म झरंता जे नर राष, सो वोलौ ७ अवधूता ।। ४६ ॥ भाली लगती है, उसका भयंकर रूप इस बाहरी भोजेपन के कारण छिपा रहता है, और यह अनौचित्य तो देखिए-) जिस माता ने संसार दिखाया, संसार में जन्म दिया (सी से उत्पन्न होने के कारण गोरखनाथ स्री-मात्र में मातृभाव मान रहे हैं-) उसी को गोद में चिपका कर जोग (अथवा श्राप ) सोते हैं। हे गुरुदेव वास्तविक गुरु की ढुंढ कीजिए-यह गोरखनाथ का कथन मुक होकर भी आप बंधन में पढ़ गये, यह कैसा योग है । ( योग तो मोक्ष का कारण होता है बंधन का नहीं। ) संभोग से तो शरीर दिन दिन घीण होता चला जाता है । ( उसके द्वारा माया) अोठ, कंठ और तालू को शोप लेती है और मज्जा तक को निकाल कर खा जाती है। कामुक जीवन मनुष्य को वैसे हो नष्ट कर डालता है जैसे दीपक की शिखा पतंग को । हे मछंदर गोरखनाय का वचन सुनो-सुम तो ईश्वर आदिनाथ के पुन-शिष्य हो, (क्यों अपने आप को गये हो ? नहीं जानते कि-) मदते हुए बिंदु (प्रम) की जो नर रक्षा करता है वही अवधूत है। पोले कोड़े, कोरै (बज), कोलि और खुखली (गढ़वाली) । मिजालू = मज्जा+बा (लू) ॥ १६ ॥ १. (घ) गुरूदेव । २. (घ) गुर । ३. (घ) पुषता; (क) पुषते (१ मुषता, मुषते )। ४. (घ) होय तुम्हे बंधन पड़ीया। ५. (घ) ए । ६. (घ) चाम। ७. (प) तालूका सोष्या । ८. (घ) काटि ६. (घ) दीपग । १०. (घ) पतंगा। ११. (घ) गुरुदेव । १२. (घ) बूढ़ा होय तुम्ह । १३. (क) में 'नां... माया' नहीं है । १४. (घ) सुयौ । १५. (घ) तुम्हे । १६. (घ) का । १७. (५) Tho बोर।
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