१४२ [गोरख-बानी ऊजड़ पेड़ा नगर मझारी तलि गागरि ऊपर पनिहारी२ ५। मगरी परि3 चूल्हा धूंधाइ, पोवणहारा कौं रोरी खाइ ॥६॥ कामिनि जलै अगीठी ताप, विचि बैसंदर थरहर' कांपै ।। एक जु रढिया रढती१° आई, बहू बिवाई११ सासू जाई ।। नगरी को पांणी १२ कूई १३ श्रावे, उलटी चरचा गोरष गावै॥४॥४७॥ निर्यन पदकर ) भागने लगी है । चलता तो है (ज्ञान मार्ग का ) बटोही किंतु थकता है (थक कर चलना बंद हो जाता है ) मार्ग (का क्योंकि ज्ञान-मार्ग पर चलन से मोक्ष प्राप्त होता है और मोक्ष प्राप्त हो जाने पर कुछ करना शेष नहीं रह जाता, ज्ञानमार्ग पर चलना अथवा मागं भी नहीं।) दुकरिया अर्थात् माया अब तक जो अध्यात्मिक जीवन को खाट बनाकर उसे दवा कर सो रही थी अब स्वयं निर्यल पड़ गई है और अब उसे और ( लेटने की जगह ) बना कर आत्मा ( जो पहले खाट बना था) उसके ऊपर बैठ गया है। (अब तक मन कुत्ते की तरह रखवाली कर रहा था और श्रारम-ज्ञान को चोर की तरह भगाता रहता था।) अब वही कुत्ता (द्रोही मन) छिप गया है और उसका स्थान ज्ञान ने ले लिया है जो भौतिक भावों को भगाता रहता है, यही चोर (आरम-ज्ञान) का मौकना है। बकरी ( मगरी राजस्थानी में जंगल को कहते हैं) पड़ी है, अर्थात जल नहीं रही है (जीव जो पहले वय ताप से जला करता था अब अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर तापरहित हो गया है) और चूरहा वह स्थान या वस्तु जिसमें रस्त्रकर लकड़ी जलाई जाती है, स्वयं धुश्राधार चल रहा है (अर्थात् माया जिसके संसर्ग से जीव जलता था स्वयं जल रही है, नष्ट हो रही है।) इंद्रियों, नवरंध्र प्रादिकों से बसी हुई जो माया की नगरी थी वह अब उजड़ा गांव सी हो गयी है, इन्द्रियां इत्यादि अय विभव छीन हो गई हैं, अब उन्हें विषयों का खाद्य नहीं मिलता है। इन नगरी (शरीर) में गागर नीचे और पनिहारी उपर है । श्रात्मा (पनिहारिन ) का निवास ब्रह्म- १. (घ) ऊझड़। २. (घ) मझार पनिहारि । ३. (घ) ऊपरि । ४. (घ) धाय । ५. (घ)। ६. (घ) पाय । (घ) कामणि । ८. (घ) अंगीठी। ६. (घ) थर-थर । १०. (घ) रंडीया यहु रंडती। १२. (घ) वहु वियाई । १२. (घ) का पांणी। १३. (घ) कूपै ! १४, सर्वागी में भी यह पद उद्धृत है। उसमें अतिम पंक्ति नहीं है। उसके स्थान पर यह पंक्ति है-
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