[गोरख-बानी - बानियों के संबंध में दो तथ्यों की ओर ध्यानजाता है। एक ओर तो नाथ गुरुओं की बानी के प्रति उनके शिष्यों में जो प्रगाढ़ श्रद्धा और विश्वास की भावना होती है, वह उसे नष्ट होने से बचाती है, और दूसरी ओर स्मृति के कारण उसमें कुछ परिवर्तन या छूट हो जाती है तथा सांप्रदायिक उद्देश्य और मत-विकास या परिवर्तन या स्पष्टीकरण की अभिलाषा गुरुत्रों के नाम से नई रचनाओं के गढ़े जाने और पुरानी रचनाओं में परिवर्धन या परिवर्तन का कारण होती हैं । अलग- अलग स्थानों में अलग-अलग परिवर्तन और परिवर्धन होते हैं । इस लिए विभिन स्रोतों से होकर आनेवाली प्रतियों उस छानबीन में सहायक होती हैं जिनके आधार पर हम मूल रचनाओं के निकट तक पहुँचने का प्रयत्न कर सकते हैं । ऊपर की सरणी में, ज्ञात-लिपि कालवाली प्रतियों में से (च) प्रति (सं० १७१५) सब से पुरानी है। उसमें गोरख के नाम से १५ रचनाएं दी हैं। केवल (ड) प्रति (सं० १७६४) में इससे कम अर्थात् १३ रचनाएं हैं जिनमें से सात (च) के साथ समान हैं और ६ उसमें नहीं हैं। अन्य सब प्रतियों में इससे अधिक रचनाएँ हैं । (छ) प्रति में ही जो (च) से केवल २६ वर्ष बाद की लिखी है २४ रचनाएं हैं जिनमें से १२ (च) में नहीं हैं। (घ) में सबसे अधिक अर्थात् २६ हैं जिनमें से १६ (च) में नहीं हैं। (च) से सब से अधिक लमा- नता रखनेवाली प्रति (क) है (काल अज्ञात संभवतः लगभग सं० १७१५)। उसमें की वह रचनाओं में से भी ८ (च) में नहीं हैं। इसी प्रकार (च) में की चार रचनाएं (क) में, तीन (छ) में, पाँच (घ) में, छः (ङ) में, और १२ रच- नाएं (ज) में और ६ (अ) में नहीं हैं। (च) प्रति के सब से पुरानी होने के कारण उसको सब से महत्वपूर्ण मानना उचित है और उससे अधिक समानता वाली (क) को भी। इस लिए पुस्तक के मूल अंश के लिए चयन करने के अर्थ मैंने उनको श्राधार माना है। परन्तु उनकी सब रचनाओं को नहीं लिया है। उनमें की उन्हीं रचनाओं को लिया है जिनका समर्थन अधिकांश अन्य प्रतियों से हो जाता है। (अ) प्रति का महत्व यह है कि उसे संप्रदाय के किसी स्तंभ ही ने प्रस्तुत कराया होगा । इसलिए उसमें उन बानियों का होना आवश्यक है, जिनका सप्रदाय में मान रहा होगा। 'गोरख गणेस गोष्टी' और महादेव गोरख गुष्टि' को मैंने छोड़ दिया है। यद्यपि वे (च) में हैं और अन्य प्रतियां पहली का तथा तीन दुसरी का समर्थन करती हैं। कारण थागे कहेंगे । इस प्रकार सरणी में की प्रथम दस रचनाएं मूल
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