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१३६ [गोरख-बानी आपण ही स्यंघ' बाघ आपण ही गाइ, आपण ही मारीला, आपण ही पाइ । २। आपण ही टाटी फड़िका, आपण ही बंध, आपण ही मृतग", आपण ही कंध । ३ । न्हाइबे कौं तीरथ न पूजिबे कौं देव, भणंत गोरषनाथ अलष अभेव ४॥४॥ मेरा गुरु तीनि छंद गावै, ना जाणौं गुर कहां गैला, मुझ नींदडी न आवै ॥टेक॥ कुम्हरा कै घरि हांडी आछ, अहीरा के घर सांडी। वमना के घरि रांडी आछै, रांडी सांडी हांडी ।। - The देता । जिससे युद्ध करता हूँ वही तो प्रारम स्वरूप राम है । (यह आत्मा ही ) स्वयं कच्छप ( कछुश्रा) और मच्छ ( मछली.) है और स्वयं ही (उनको घंधन में डालने वाला जाल (अर्थात् स्वयं जीव है और स्वयं उसे बंधन में मलने वाला माया-पाश ) स्वयं धीवर ( मछमार ) है और स्वयं काल स्वयं सिंह और म्याघ्र ( माया) है, और स्वयं गाय (जीव ) जिसे वे प्रसने जाते हैं । अपने ही को मारता है और स्वयं खाता है। स्वयं ही.बांस के उट्टर का तौंचा है और स्वयं ही उस पर बांधा जाने वाला फरका (फलक) या छाजन और स्वयं ही उनको बाँधने वाला बंधन । स्वयं मारने वाला है और स्वयं हो शरीर है। (जो मारा जाता है। ) (धारमा के बाहर ) न कोई तीर्थ है जहाँ के पवित्रता के लिये नहाया जाय और न कोई देवता है जिसकी पूजा की जाय । गोरखनाथ कहते हैं कि (यह भारमा) अलक्ष्य है जो भाँखों से दिखायी नहीं देता, अमेव है, जिसका किसी को भेद अथवा रहस्य नहीं ज्ञात है। कंध=स्कंध, कंधा, यहाँ पर शरीर ॥ ४१॥ मेरा गुरु तीन छन्द गाता है। (एक ही यात को तीन प्रकार से कहता १. (घ) सिंध । २. (घ) गाय पाय । ३. (घ) मौर । ४. (घ) ताटी। ५. (क) भारीला । ६. (घ) न्हायवे कू । ७. (घ) कू देवा "अमेवा ।