१३२ [गोरख-बानी आदिनाथ नाती मछींद्रनाथ पूता, निज तत निहारै गोरष अवधूता ।४॥३७॥ पंडित जण जण बाद न होई, अणबोल्या अवधू सोई ॥टेक॥ पत्र ब्रह्मा कली बिसना, फल मधे रुद्रम् देवा । तीनि देव का छेद किया५, तुम्हें करहु कौंन की सेवा ।। येक डंडी दुडंडी त्रियांडी' भगवान हूवा । बिष्न को तिन पार न पायौ, तीरथां'१ भ्रमि भ्रमि मूवा'२ ॥२॥ येक काल मुहां१3 जटा धारी, ल्यंग उपासिक हूवा । महादेव को १४ तिन पार न पायो१५, राष रौलि रौलि१६ मूवा१७३। तुम सजीव फूल पत्तियों को तोड़ कर निर्जीव मूर्ति को पूजते हो । इस प्रकार पाप की करनी (कृत्यों) से दुस्तर संसार को कैसे तर सकते हो? तीर्थ तीर्थ में स्नान करते हो। नाहर धोने से जल भीतर प्रवेश कर श्रात्मा को कैसे निर्मल कर सकता है ? (पानी तो केवल शरीर को निर्मल बनाता है।) आदि नाथ का नाती-शिष्य और मछन्दरनाथ का पुत्र-शिष्य गोरख केवल निज तत्त्व (आत्मा) का दर्शन करता है ॥३७॥ हे पंडित, योगी के यहाँ जन जन से शास्त्रार्थ ( वाद ) नहीं होता । (योगी हर किसी से शास्त्रार्थ नहीं ठान बैठता) अवधूत वह है जो अनबोला है, (बोलता नहीं है। क्योंकि समाधि के श्रानन्द का वर्णन बोलकर किया ही नहीं जा सकता है।) पत्ते में ब्रह्मा है, कली में विष्णु और फल में रुद्र देवता ( महादेव) इस प्रकार 'पत्रं पुष्पं फलं' जब देवता को चढ़ाते हो तव तीनों का छेद होता है घताओ तुम किस देवता के भक्त हो ? ॥१॥ भगवान=संन्यासी जिसे 'सोऽहं' की अनुभूति हो गई है, स्वयं ब्रह्म है। परन्तु यहाँ उन्होंने इस अनुभूति को ब्रह्मपरक न मान कर विष्णुपरक माना है । १. (घ) यू बोल्या। २. (घ) पेड़े। ३. (क) रुद्र म (घ) रुद्र । ४. (क) प्रथमे तीनि ल्यंग का । ५, (घ) कीया। ६ (घ) तुम्ह करौ । ७. (घ) कौंण । ८. (घ) यक ६. (क) दोइ । १०. (क) तृय डंडी । ११. (घ) प्रषडे । १२. (घ) मूवां । १३. (घ) 'काल मुहां के रहले 'येक' नहीं है, उसके बाद 'अर' है। १४. (घ) का । १५. (घ) पाया । १६. (घ) रोलि रोलि । १७.(घ) मूवां ।
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