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१४ || गोरख-बानी] १३१ पवन गोटिका रहणि' अकास, महियलर अंतरि गगन कविलास ।२। पयाल नी ढीची सुनि चढ़ाई, कथंत गोरषनाथ मछींद्र बताई ३६ कैसे बोलौं पंडिता देव कौनै ठाई, निज तत निहारतां अम्हें तुम्हें नाहीं ॥टेक॥ पषांणची देवली पपांण चा देव, पषांण पूजिला कैसे फीटीला सनेह ॥११॥ सरजीव तेडिला१२ निरजीव पूजिला१२, पाप ची13 करणीं कैसे दूतर तिरीला तीरथि तीरथि सनांन'५ करीला, बाहर ६ धोये कैसै भीतरि१७ भेदीला ।३। स्मटपट नहीं है। पवन रूप गुटिका के बल से आकाश (प्रहारंध्र ) में उसकी रहनि (निवास) है। कैलास के समान ऊँचा ब्रह्मरंध्र ( आकाश ) उसके लिए पृथ्वीतल (शरीर) में है। इस प्रकार पाताल को (स्वाधिष्ठान में निवास करने वाली ) कुएसलिनी शक्ति को उसने शून्य (ब्रह्मरंध्र ) में चढ़ा दिया है- गोरख कहते हैं कि मछ्न्दर ने मुझे ( यह सब वात ) बताई है ॥३७॥ हे पंडितो कैसे बताऊँ कि देवता किस स्थान में रहता है ? निज तस्व को देख लेने पर हम और तुम नहीं रह जाते (सय एक हो हैं, भेद मिट जाता है । ) पत्थर के मन्दिर में पत्थर के देवता की प्रतिष्ठा ( करते हो।) ( तुम्हारे लिए ) स्नेह (दया) का प्रस्फोट कैसे हो सकता है ? (परयर का देवता कहीं पसीज सकता है ?) १. (घ) रहणी । २. (घ) महियरं । ३. (घ) पाताल की। ४. (घ) आकास। ५. (घ) वदंत । ६. (घ) मछिंद्र । ७. (घ) हूँ तोहिं पूछू पांड्या देव, कौंणै. ठांय रे । ८. (क) हमें तुम्हें । ६. (घ) नाहिं रे । १०. (घ) पाषाण का देहुरा पाषाण का देव । ११. (घ) पाषाण कूपूजि फीटीला सनेह रे । १२. (घ); तोड़ीला, पूजीला । १३. (घ) को। १४, (घ) 'कैसें दूतर तिरीला के स्थान पर 'पारि कैसे उतरीला'। १५. (घ) तीरथि तीरथि जाईला असनांन; (क) तीरय तीरथ सनांन । १६. (घ) बाहरि कै । १७. (क) कैसें भीतर; (घ) भीतरि - 1 कैसें। ।