१३० [गोरख-बानी ११ १२ १३ १ डाल' न मूल न वृष न बेला, साषी न सब्द गुरू नहीं चेला ।२। ग्यांने न भ्याने जोगे न जुक्ता, पापे न, पंने मोषे न मुक्ता ॥३॥ उपजै न बिनसै आवै न जाई, जुरा न मरण वाकै बाप न माई ।४। भणत गोरषनाथ मछींद्र नां दासा, भाव भगति और आस.. न पासा 14॥३५॥ श्रावो माई धरि धरि जावो, गोरष बाला भरि भरि खावो ।।टेक।। झरै न पारा बाजै नाद, ससि हर सूर न बाद बिबाद ।। न शाखाएँ हैं न मूल । न वह वृक्ष है न बेल, उसकी न साखी है न शब्द । वह न गुरु है न चेला । वह न ज्ञान में है न ध्यान में है, न योग में है न युक्ति में है। वह न पाप में है न पुण्य में है, न मोक्ष में है और न मुक्त ही है। (ज्ञान इत्यादि के द्वारा वह प्राप्त होता है पर परमार्थ रूप में ये सब साधन माया ही के अंतर्गत हैं, इस लिए वह इनसे बाहर है।) वह न उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है, वह न आता है न जाता है (आवागमन से परे है।) उसके न बरा (बुढ़ापा) है न मरण और न बाप है न माँ। मछन्दर का शिष्य गोरख कहता है कि वह न भाव-भक्ति में है और न आशा के जाल में ॥३५॥ हे माताओ आनो ( मेरे सामने भिक्षा) धर धर जानो । ( इस आदेश के साथ कि) हे पालक गोरख पेट भर करके भोजन करो। (संसार की सब स्त्रियां गोरख के लिए माता के समान हैं, जो भरण-पोषण करती हैं, उससे दूसरी दृष्टि से वह किसी को नहीं देखता कि उसका बिन्दु-क्षरण हो । इसलिए) उसका पारा (शुक्र) स्थिर है, झड़ता नहीं है । ( उसके अन्तर में अनाहत) नाद बजता है। शशधर (चन्द्रमा) और सूर्य में मेल है ( वाद-विवाद या १. (घ) गरभ न मूल विरष नहीं । २. (घ) साषा । ३. (घ) में 'न शब्द' के स्थान पर 'सबद; (घ) में आगे की पंक्ति में एकरांत के स्थान पर ऊकारांत रूप हैं । ४. (घ) जुगता ५. (घ) पाप न पुनि मोछि नहीं । ६. (क) (घ) मुकता । ७. (घ) न जनम; (क) में 'न नहीं केवल 'मरण' है। (घ) में चौथी पंक्ति का स्थान टेक के बाद पहला है। ८. (घ) का। ६. (घ) भाव की । १०. (घ) आसा। ११. (घ) आवौ हो १२. (घ) जावै। १३. (ब) पावा।
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