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१२६ [गोरख-बानी जीव सीव नासिंगै बासा, नावधि पाइवा रे रुध्र मासा ॥ टेका। घाव न घातिबा हंस गोतं, बंदत गोरषनाथ निहारि पोतं ।। मारिबा रे नरा मन द्रोही, जाकै बप बरण नहीं मास लोही ।। सब जग प्रासिया देव दाण,सो मन मारीबारे गहि गुरु ग्यांन बांण ३। बसू क्या हतिये रे प्यंड २ धारी, मारिये पंच भू मृघला जे चरै वुधि बाड़ी१४ जोग का मूल है दया दांनं । भणत:५ गोरषनाथ ये१६ ब्रह्म ग्यांनं ४॥३२॥ दया धर्म का बीज मँगायो तब खेत में जाओ। फिर तो वह खेती पैदा होगी कि खाने से खतम नहीं होगी, देने से नष्ट नहीं होगी और यम द्वार में न जाना होगा। मछदर के प्रसाद से गोरख यती का कहना है कि वह खेती नित्य नवीन ही बनी रहेगी। जीव और सीव (शिव ब्रह्म ) एक ही स्थान के निवासी हैं। इसलिए हत्या करके रुधिर और मांस नहीं खाना चाहिए। अपने सगोत्री ( एक ही कुल के) श्रास्मा (हंस) पर प्रहार न करो। ( उस पर प्रहार करते हुए) अपने बच्चे को देखो । वह तुम्हारे बच्चे ही के समान है । हे मनुष्यो ! ( जीवों के बदले दोही मन को मारना चाहिए, जिसके न शरीर है, न वर्ण है, मांस है, न रक्त है। इस मन न देव दानव श्रादि सारे संसार को प्रस लिया है। ऐसे 'इस मन को गुरु के दिये ज्ञान का बाण मारना चाहिये। शरीर धारी पशुओं का वध क्या करते हो पंचभूतात्मक मन-मृग को मारिए जो बुद्धि रूपी पाटिका (क्यारी) को चर लेता है। योग का मूल दया दान है गोरखनाथ यह ब्रह्मज्ञान कहते हैं ॥३२॥ न' . १. (घ) ना। २. (घ) संगे। ५. (घ) नां । ४. (घ) षइबा । ५. (क) रूधर्मासा । ६. (क) घलिबा । ७. (क) नहारि। ८. (घ) दोही। ९. (घ) वरणन नांहीं मांस... । १०. (घ) प्रास्या । ११. (क) सौ। १२. (घ): हतीए रे पिंड । १३. (घ) मारीए । १४. (घ) बारी। १५. बदंत । १६. (घ)ए।