गोरख-बानी] १२५ है जागा' जोगी कनक रावलिया, गुरुदेव मेंहलौ बूठौ। 'पोजता पोजतां सतगुर पाया, सहजै मैं भावै तृठौ ॥ टेक ॥ उतर देस मैं मेंह धड़क्या, दक्षिण आचल छाया। 'पूरब देस थीं पाणिग बिछूटी, पछिम खेत्र में पाया ।११ मन पवना धोरी जोतावोउ, सतनां सांतीड़ा समधावो। दया धर्म नां बीज अणावो', इणी परि षेत्रे जावो ॥२॥ पातां न पूटै देतां न निठे, जम बारे नहीं जाइ । मछींद्र प्रसादै जती गोरप बोल्या, नित नवेरौं थाइ १३॥३॥ अपने आप उत्पन्न हो जाता है। तब सुपुरणा (बंकनालि) में सूर्योदय हो जाता है और रोम रोम में तुरी बजने लगती है अर्थात् अनाहत का अनुभव होने लगता । (सहस्रार ही से चेतन तत्व नीचे की ओर गया है। योगाभ्यास से वह फिर) उलट कर सहसार ही में बास पा जाता है, और भ्रमर गुफा (ब्रह्मरंध्र) में ज्योति प्रकाशमान हो जाती है । इस प्रकार हे मथुरा (?) सुनो वे साधु (कपर कहे अनुसार साधना करने वाले) परमतत्व को प्राप्त करते हैं ॥३०॥ कनक रावल जोगी जागा । (रावल जोगियों का एक भेद है। कनक स्वर्ण के अर्थ में श्रेष्ठता का अथवा रसायनी (कीमियागर) का भी योतक हो सकता है और खाली जोगियों को भांग धतूरा पीने की आदत का परिचायक भी ।)गुरुदेव मेह के रूप में परस पड़े हैं, ( उनकी दगा प्रकट हुई है।) वे सहा भाव से तुष्ठ हो गये हैं। उत्तर देश (त्रिकुटी या ब्रह्मरंध्र ) में मेघ गरजे, दक्षिण दिशा (स्वाधिष्ठान ) में अच्छी तरह छा गये। पूर्व देश (इला पिंगला ) से पानी की धारा छूटी घऔर पश्चिम क्षेत्र अर्थात् सुपुम्णा में पहुँच गयी। मन पवन रूप प्रैल (सुफेर, धौले ) जोतवालो । सत का सांतीड़ा (संभावतः सीता या सेंता ( गढ़वाली अर्थात् विगडैल वैलों को नाथने का रत्सा) ठीक करो (जिससे बैल वश में रहें।) १. (घ) जागो नै । २. (क) रूठो (१) संभवतः प्रति के लिपिकार ने प्रमाद से 'त' को 'न' (र) पढ़ लिया है । ३. (घ) जोतावै; (क) जोत्रावो । ४. (घ) समदावी, अणावौ, जावौ । ५. (क) प्रम । ६. (क) पातां । ७. (घ) द्वारे नहि जावै। १६
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