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गोरख-बानी] काल न मिट्या जंजाल न छुट्या', तप करि हूवा न२ सुरा। कुल का नास करै मति कोई, जै गुर मिलै न पुरा ।२। सप्त धात का काया पीजरा", ता मांहि जुगति बिन सूवा । सतगुरु मिले तो ऊबरै बाबू, नहीं तौ परलै हूवा ।३। कंद्रप रूप काया का मंडण, अविरथा कांइ११ उलींचौ१२ । गोरष कह सुणों रे भौंदू, अरंड अमी कत'४ सींचौ ।४॥२२॥ प्रकाश दिखायी देता है । जहाँ योग है वहाँ रोग नहीं व्यापता। ऐसा परख करके गुरु करना चाहिए कि योग की जगह रोग न हो नाय । यदि योगाभ्यास के द्वारा तन मन से ब्रह्म-साक्षात्कार (परिचय) न हुआ तो योगाभ्यास के द्वारा व्यथं का कष्ट क्यों झेला जाय । यदि पूर्ण (योगी) गुरु न मिला तो कोई अपने कुल का नाश न करे. कुल को छोड़ कर जोग न ले, (क्योंकि अधूरे को गुरु बनाने से काल नहीं मिटता और जगत का जंजाल नहीं छूटता । ऐसा अधूरा तप करने से साधक शूर नहीं होता। यह शरीर सात धातुओं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र) से बना हुआ पिंजरा है जिसमें जीव युक्ति को न जाननेवाले सुए के समान सद्गुरु के मिलने से ही उद्धार हो सकता है, नहीं तो निश्चय प्रलय (नाश) हुआ समझो । ( परमात्मा ने मनुष्य शरीर की इतनी सुन्दर सजावट की है, मनुष्य को कामदेव का सा सुन्दर रूप दिया है। इसे व्यर्थ (अंविर्था) क्यों फेंकते हो ? हे मूर्ख! अधकचरे गुरुओं से सीखे योग पर इस शरीर को लगाना वैसा ही है जैसा रेंसी के पेड़ को अमृत से सींचना ॥ २२ ॥ १. (घ) चूका । (घ) भयामन । ३. (घ) जे । ४. (घ) में इसके आगे इतना और है-'वस्ती मैं सुनि सुनि मैं बस्ती अगम अगोचर ऐसा। गिगन मडल में बालक पेलै ताका नांव धरौगे कैसा । जो थोड़े अन्तर से पहली सबदी है । ५. (घ) अष्टधात का बण्या प्यंजरा । ६. (घ) जतन का । ७. (घ) ऊवरै । ८. तर । ६. (घ) में इसके आगे इतना और है-"नामि कॅवल ते लहरि उतपनी झिलिमिलि सो बाई । पुध्या त्रिषा ताहि न व्यापै ता पदि रह्या समाई ॥" १०. (क) अवृथा। ११.(घ) कांय । १२. (घ) उलीचौ १३. (घ) नर भौंदू । १४.(घ) अमी एरंड काय ।