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काल' २१४ [गोरख-बानी अनहद सबर्दै संप वुत्ताया, महादल दलियार लो। काया कै अंतरि गगन मंडल में, सहजै स्वामी५ मिलियारे लो ।२। ऐसी गावत्री घर वारि हमारै, गगन मंडल मैं लाधी लो। इहिं लागि रया परिवार हमारा', लेइ निरंतरि वांधी११ लो ।३। कानां पृछां सींग बिबरजित१२, बर्न१३ विवरजित गाइ लो। मछिंद्र प्रसादै जती गोरष बोल्या, तहां रह ४ ल्यो लाई लो ॥२१॥ अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी, ता मैं झिलिमिति जोति उजाली५॥टेक॥ जरा जोग तहां रोग न व्या, ऐसा परपि गुर करना१६ ॥ तन मन सूजे परचा नाही, तो काहे को पचि मरना ६ । १ । . ममत्व ) के विना उसके यच्चे ( पड्पु ) भी मर गये । इस प्रकार जाति (जन्म ) से हीन होकर लाल ग्वालिया ( १ गोरखनाथ ? ) रात दिन गोरू चराता रहता है, इद्रियों को संयत मार्ग में लगाये रहता है)। पनाहत शब्द का संग्ख पजा कर ललकारते हुए उसने काल की यही सेना को दान कर दिया है । इससे काया के भीतर ही श्राकाश मंडल में सहज रूप से स्वामी पर. ग्राहा गया हमारे घर के दरवाजे पर एसी गाय । गायत्री) बँधी है जिसे हमने थाकाश मंटन (बहरंघ ) में प्राप्त ( वाधा, लब्ध, लघ) किया । मेरा सारा परिवार (सकल इन्द्रियों सहित मन ) इसी गाय की सेवा में लगा रहता है अथवा इसी के प्रभाव से पलता है क्योंकि सब कुछ का अधिष्ठान ब्रह्म ही है। इसे लेकर निरंतर में पोध दिया है। यह गाय कान, सींग पूंछ से रहित है मौर रंग में भी रहित है। यती गोरपनाय कहता है कि मसुन्दर के प्रसाद मे हम पारी ( उस गाय में पर्यात् प्रशानुभूति में लवलीन रहते हैं । ) ॥ २॥ है अधुन । पम ज्ञान का विचार किया है जिसमें ज्योति का मिलमिल १. (क) काम । २. (घ) दलीया, मिलीया । . (क) के। (घ) अंतर । ५. (4) स्वानी । ६. (८) पदवी । ७. (घ) मुन । ८. (घ) तिहिं । ६. (घ) रयो । १०. (१) माह । ११. (घ) यो निरंजन बाधी । १२. (घ) साँग कान मुराए पर गिर १३.(५) परग। १४.(घ) मा। १५. (क) पृषी में का उत्पाग। १६. (प) करपी मरमा । १७. (1) मेती परना।