90 -- गोरख-बानी] १११ तीन सै साठि थेगली कंथी', इकवीस सहस छ सै धागं । बहतरि नाड़ी सुई नवासी, बावन वीर सीया लागं।४। इली सोधि धरि प्यंगुली पूरी, सुपमनी चढ़ असमान । मछिंद्र प्रसादै जती गोरष बोल्या, निरंजन सिधि नै थानं ।। ॥१॥ आंबलियौ थलि मौरियो'१ ऊपरि नींब विजौरै फलियो। सो फल पाता लागै१२ मीठी, जाणं रे जिन गुरु प्रसादै दीठौ ।।टेक।। का भस्म धारण है । ) इस प्रकार नादी ( नादवाले अर्थात् जो नादानुसंधान को प्रधानता देते हैं ), बिंदी (जो बिन्दु रक्षा को प्रधानता देते हैं ) सिंगी (अनाहत नार के प्रतीक स्वरूप जो भंगीनाद बजाते हैं और श्राकाशी (जो श्राकाश अर्थात् त्रिकुटी को लक्ष्य किये रहते हैं।) और अलक्ष्य गुरू के चेले हो जाते हैं। नाथ योगी शरीर में ३६० हड्डियों का होना मानते हैं । ये हड्डियां ही वे थेगलियां हैं जिन से गुदड़ी (कंधा ) ( यहाँ पर देह) बनी है । २१,६०० सौसे जो दिन भर में श्रादमी लेता है, वे तागे हैं जिन से ये थेगलियों आपस में सिली हुई हैं। बहत्तर नादियाँ नवासी ( बहुत सी ) सुइयाँ हैं और बावन वीर चेतन इसको सोने वाला दर्जी । इदा नादी को सोध कर पिंगला में पूरना, भरना, मिला देना चाहिये। फिर सुपुम्णा के मार्ग से आकाश में बढ़ जाना चाहिये । इस प्रकार मछंदर के प्रसाद से जती गोरख ने निरंजन सिद्धि का स्थान बतलाया है ॥१६॥ मावला अथवा श्राम (श्रांव + लाइयो) अपनी जगह पर बौरा किन्तु उसमें फल निकला नियौरी (नींब का बीज वाला फल ) वह फल अर्थात् निबौरी खाने में मीठी लगती है। अर्थात् मूलाधिष्ठान परब्रह्म (सुस्वाद और स्वास्थ्यकर प्राम या आँवले ) पर माया का अध्यारोप हुना है , (निबौरी फली है ) परंतु (जानकर खाने वाले को इसमें भी मिठास मिल जाती है) माया में भी ब्रह्मानुभूति का सुख मिल जाता है। इसे वही जानता है जिसे १. (घ) कया। २. (घ) सहंस यकीस छ सै धागा। ३. (घ) नाको । ४. (घ) सूई निवासी । ५. (घ) सीवण लागा। ६. (घ) नै । ७. (घ) पिंगुला । ८. (घ) सुषमनि चढ़ी। ९. (घ) बदंत गोरपनाथ सुणौ मछिंद्र । १० (घ) सिध अस्थानं लो। ११. (क) मारियो । १२. (क) में 'लागै' नहीं।
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