१०८ [गोरख-वानी काटत बेली कंपल मेल्ही सींचतड़ां कुमलाये। मछिंद्र प्रसाद जती गोरप बोल्या, नित नवेलड़ी थाये १४॥१७॥ बूमो पंडित ब्रह्म गियांन’, गौरष बोले जाण सुजांन५ ॥टेक।। वीज विन निसपती मूल बिन बिरषा पान फूल बिन फलिया । वांझ केरा बालड़ा, प्यंगुल' तरवरि चढ़िया । १ । गगन विन चद्रम' ११ ब्रह्मांड बिन सूरं, झूम विन रचिया थानं१२ । ऐ१३ परमारथ जे नर जाणे, ता घटि१४ परम गियांनं। २ । - उतना हो मनुष्य उसमें अधिकाधिक उलझता चला जाता है। यह बेल काटे नहीं कटती। जितने प्रयल इसे वनात् नष्ट करने के किये जाते हैं उतने ही यह कॉपले फेंकती जाती है, नष्ट नहीं होती। परन्तु इसे यदि ज्ञानामृत चंद्र-नाव से सोंचिए तो यह कुम्हला जाती है । (परन्तु इस बेल का सर्वथा नाश नहीं हो सकता | माया का एक व्यक्ति के लिये अंत हो सकता है परंतु शेप संसार को वह फिर बाँधे खखेगी। एक की साधना के सफल होने से सारा संसार मुक्त नहीं हो जाता । अपने अपने बंधन सबको अलग अलग छुदाने होते हैं। इस प्रकार यह माया रूप बेल सर्वदा नवीन बनी रहती है। (थाये=स्थित रहती है।) मछंदर के प्रसाद से गोरपनाथ का यह वचन है ॥ १६ ॥ हे पंडित ब्रह्मज्ञान को समझो । सुजान ज्ञानवान् गोरखनाथ ब्रह्मज्ञान । ज्ञान अथवा परब्रह्म की विना वीज के उत्पत्ति हुई है, ( उसका कोई कारण नहीं है) वह बिना मूल का वृक्ष है (निराधार है), वह यिना पत्तों और फूलों के फल जाता है अर्थात् प्राकृतिक नियम उसे नहीं घाँधते । वह संध्या का बालक है (अर्थात् जन्मा है और किसी कारण का कार्य नहीं है।) यह विना अाकाश का चन्द्रमा है और यिना ब्रह्मांड का सूर्य, मिना कहता है १. (प) सींचतड़ा सींदाये; (घ) कुमलाई । २. (घ) निति निवेरड़ी थाई । ३. (घ) पूछी। ४. (घ) गिनांन-सुजांना। ५. (घ) वृपा । ६. (घ) विण एलीया । ७. (क) बांज । ८. (घ) चरि विण न्हेरेला पिंगुला । ९. (घ) चढ़ीया, रचीया, गिलीया, जलीया, भरीया, पढ़ीया । १०. (घ) गिगन विण चंद्र। ११. (4) प्रसर विन्ध सूर, (क) में 'चिन सूरं नदी ! १२. संभवतः शुरु पाठ ऐसा हो-मंझ रचिपा रिन यांनं। १३. (क) एफ । १४. (५) पट।
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