. - गोरख-बानी] १०७ काया कुंजर तेरी बाड़ी अवधू', सत गुर बेलि रुपांणीं । पुरिष पाणती करै धणियां! नी बालि घरि आणीं ।१। मूल एद्वा जेद्वा ससिहर अवधू, पांन" एद्वा जेद्वा भाणं । फल एद्वा जेद्वा पूनिम चंदा, जोउ जोउ जाण' सुजाणं । २ । बेलडियां दो लागी' अवधू, गगन पहूँती झाला१२ । जिम जिम वेली दामबा' 3 लागी, तब मेल्हे १४ कूपल डाला'२ । ३ । शाखाएं हैं, न जड़ है, फूल हैं, न छाया है और बिना पानी दिये बढ़ती रहती है। हे अवधूत काया कुंज में तेरो बाटिका (बाड़ी ) है जिस में सद्गुरु ने यह तत्त्वरूपी बेज रोपी है। पुरुष (पवन) रूप किसान उसको बहुत पिलाई (सिंचाई ) करता है । और फल स्वरूप सुदर बाली घर लाता है अर्थात् अच्छी फसल काटता है। इसका मूल ऐसा है जैसे शशधर (चंद्रमा) अर्थात् इसका मुल सहस्रार में स्थित चन्द्रमा में है। और पत्ते ऐसे हैं, जैसे सूर्य । चन्द्रमा शीतल ज्ञानामृत का बोधक है और सूर्य ज्वालामयी माया का । ( अर्थात माया का भी अधिष्ठान ब्रह्म ही है। यह माया अर्ध्वमूल अधाशाख है। सहस्रार ( चंद्र ) में उसका मूल है और मूलाधार चक्र (सूर्य) में उस का पूर्ण विकास है। ) फल इस वेल का ऐसा है जैसे पूर्णिमा का चंद्रमा । अर्थात् इस बेन का कोई पूर्ण वाम उठावे तो उससे अमृत (ज्ञान) मम चन्द्रका (अमृतमय और सहनारस्थ होने के कारण चन्द्रमा ज्ञान और अमरत्व का घोतक है।) प्राप्त होता है, जिसको सुजान (ज्ञानवान ) जोग ही जान सकते हैं इस वेल पर जब आग (संसार को दुःख रूप अग्नि) लगती है तो इतनी भयंकर कि उसकी लपटें (झावा, ज्वाला ) श्राकाश तक पहुँच जाती हैं परन्तु ज्यों ज्यों बेल पर आग लगती जाती है, त्यों स्यों उसकी शाखाए कीपल डालने लगती हैं (अर्थात् भवाग्नि माया के प्रसार के लिए बहुत अनुकूल है। जितनी संसार की जलन (तृष्णा) बढ़ती जाती है, १. (घ) रे अवधू । २. (घ) सतगुरु । ३. (घ) रुपाणी...आणी (क)...आनी । ४. (घ) पुरुष पांनति करै धनियांनौं । ५. (क) नीक वालि । ६. (क) पान । ७. (घ) फूल। ८. (घ) जोवै जोवै। ६. (क) जाण। (क) सींदाये । (घ) वेलड़ीयां । ११. (घ) लागा रे। १२. (घ) झालं ...डालं । १३. (घ) वेलड़ी दामण । १४. (घ) मेल्या। ,
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