१६ १७ 11 . १०२ [गोरख-बानी द्वै अषिरी दोइ पष उधारीला, निराकार जाएं जपियां । जे जाप सकल सिष्टि उतपनां, ते जाप श्रीगोरषनाथ कथियां ॥३॥ त्रिअपिरी त्रिकोटी जपीला", ब्रह्मकुंड निज थान। अजपा जाप जपंता गोरष, आतीत अनूपम१० ग्यांनं ।।। चौ अक्षिरी११चतर वेद थापिला'3, चारि१४ षांणीं चारिबांणीं । मछिंद्र प्रसाद जती गोरष बोल्या, अजपा जपिला धीर रहाणीं ।५।१३।। रमिरमिता सौंगहि चौगांनं२०, काहे भूलत हो अभिमांनं२१ । धरन गगन२२विचि नहीं अंतरा२३, केवल मुक्ति२४ मैदानं२५ ॥ टेक द्वयक्षरी जप यह है कि हमने निराकार का जप करते हुए इहलोक और पर- लोक, निर्गुण और सगुण, सूक्ष्म और स्थूल दोनों पक्षों का उद्धार किया है। इस प्रकार जिस जप से सारी सृष्टि उत्पन्न हुई है, उसी का कथन गोरखनाथ ने किया है। विकुटी में जो ब्रह्म का कुड है और भारमा का निज स्थान है अजपा-जाप करते हुए, पहुँच के बाहर अनुपम ज्ञान को गोरखनाथ ने प्राप्त किया है, यही म्यत्तरी मन्त्र-जप है चतुर्वेद (ब्रह्मा) ने उद्भिज, अमज, अंरज, और पिंडज ये चार खानि तथा सहज, संजम, सुपाइ और अतीत (-खाणी बाणी ग्रंथ ) चार वाणी पैदा की हैं । इनके बीच में अजपा जाप जपते हुए स्थिर रहना ही, मछंदरनाथ के प्रसाद से गोरस्व कहते हैं, चतुरक्षरी मन्त्र-जप है ॥१३॥ परयम रमता राम से चौगान का खेल खेलो। अभिभान में क्यों भूलते १. (घ) दोय अक्षर । २. (घ) उधारिले । ४. (घ) मैं 'निराकार कथिया' के स्थान पर 'तिरला भै पारं । ऐसा जाप जतंतां । गोरप भागा भरम विकारं । ५. (घ) श्री अक्षर त्री कोट मधे जपीले । ६. (क) पांन । ७. (क) अगम । ८. (घ) जपे । ६. (घ) अतीत । १०. (घ) अनुपहि । ११. (प) अक्षरी । १२. (घ) चारि; । (क) चत्र। १३. (घ) थापिले । १४. (घ) च्यारि । १५. (घ) प्रसादे । १६. (घ) जापल्यौ । १७. (घ) हथीर । १८. (घ) रे । १६. (प) सू। २०. (५) चौगांन । २१. (घ) 'में काहे भूतल ही अभिमान' नहीं है । २२. (घ) धरणी गिगनि । २३. (घ) में नहीं अंतरा के स्थान पर 'अटफ नहीं तहां' । २४. (घ) मुकति । २५. (घ) मैदांन । । 3
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