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[गोरख-बानी सक्ति' रूपी रज आ• सिव रूपी व्यंदः । बारह कला रव आछ सोलह कला चन्द । चारि कला रवि की जे७ ससि घरि आवै तौ सिव सक्ती संमि होवै, अन्त कोई न पावै ॥५॥ एही राजा राम आछ सर्वे अंगे वासा। येही पांचौं तत बाबू सहजि११ प्रकासा । ये ही पांचौं तत बावू समझि समांनां । बदंत गोरष इम१२ हरि पद जांना १३ ।६। ॥१२।। (वायु से मन वश होता है ।) मन ही मारता है, मन ही स्वयं मन-मारण का साधन है। मन ही तारने वाला है और मन ही तरने वाला। यदि मन स्थिर हो जाय तो त्रैलोक्य तर जाय । मन हो प्रारम्भ में है, मन ही अंत में है और मन ही चोच में है। (अर्थात् मूल रूप में मन शाश्वत् तत्व है।) ( बाह्य मन को विवश करने वाले ) विषय विकार भी मन ही के द्वारा छूट सकते हैं । रक्त शक्ति स्वरूप है और विंदु शिव स्वरूप । बारह कलाएं ( मुलाधारस्थ अमृत शोपक) सूर्य की हैं और सोलह कलाएँ ( सहस्रारस्थ अमृत स्रावक ) चन्द्रमा की | अभी तो सूर्य की कलाएँ प्रधान है अर्थात शक्ति या माया प्रयल है।) अगर रवि की चार कलाएँ शशि में मिल जाय तो शिव और शक्ति सम हो जायं (और वह परम अनुभूति प्राप्त हो जाय ) जिसका किसी को अन्त न मिले। ( सूरज को चार कलाओं तथा वारह कताओं और चन्द्रमा की सोलह कजात्रों के लिए देखिए आगे वाले 'रोमावली' ग्रन्थ का अंतिम अंश ।) यही परमानुभूति-गम्य तत्व राजा राम है । अर्थात यात्मा का स्वरूप है ) जिसका सय अंगों में निवास है । यही पांचों तत्वों को सहज प्रकाशित करता है। (बिना इसके पांचों तत्त्व रह नहीं सकते।) और बोध हो जाने पर इसीमें पांचों तत्व समा जाते हैं । गोरखनाथ कहते हैं कि इस प्रकार ब्रह्म जाना जाता है ॥१२॥ १. (घ) सकति । २. (घ) सुनि । ३. (घ) विंद । ४. (घ) रवि । ५. (घ) सोहै । ६. (घ) क्यारि । ७. (घ) 'जे' नहीं है । (घ) त्यो। ६. (क) में 'सवें के. स्थान पर 'भव (घ) में 'राद...अंगे' के स्थान पर रामचन्द्र अंगे अंगे। १०.(घ) एही पांच । ११. (घ) सहज । १२. (घ) गोरपनाय। १३.(घ) जांणा !