गोरख-बानी] 58 १५ 6 १७ २१ २२ द्वादश षोड़ि षटाणां नौसत (र?), जीव सीव ना बासा। चौदह ब्रह्मांड नौर एक दम है, इम ही जाइ५ निरासा ।। पवन का नीर ले अंबर धौवैध स्वासैं उसासै आया। भणत गोरखनाथ इम होई निरंतर, बीजै बटक समाया ।३। ॥३॥ बोल्या गोरष घर जोई, ये तत बूझै विरला कोई, मेरे ग्यांनी ॥टेक॥ • जोज्यौ जोज्यौ रे जहूँबा बन जोज्यौ3 तत्त राष्यौं तरियाली१४ आसण इन्द्री जेणें आप बसि राष्यां, तेणै पाया सर्व निरंतर,मेरे ग्यांनी।। मन मां तेणें१९ तन तारां२० मन बिसवावें मिलणां । मन मैं कुभ कलस रस भरिया, तेणै' मेनवै अलष लषाया,मेरेग्यांनी २। पै र जोई नै एद्वा पुरिष२७ पधारथा, पुरिष नी पारिषा२४ पाई। पुरिषै२५ मिलि पुरिष रस राष्या, पुरिर्षे पुरिष निपाया, मेरे ग्यांनी ॥३॥ द्वादश षोड़ि षटांणां नौसत (र?). "वासा सूर्य (द्वादश ) के दोप (पोदि) को चंद्रमा (सोलह = नौ+ सत) से दूर करे जिससे जीव और ब्रह्म का ऐक्य हो जाय । दम-प्राण । चौदह "निरासा=चौदहों ब्रह्मांडों का एक ही प्राण है, परब्रह्म-। बीजै बटक समाया चीज में यट का वृक्ष समा गया। माया पारमा में लीन हो गयी ॥ ३ ॥ पैर निपाया परन्तु रे (हे भाई ? ) जिसने एक पुरुष को (हृदय में) पधराया, और इस प्रकार (जिसने ) एक पुरुष (परमात्मा) को परख १. (घ) चवदा। २. (घ) ब्रह्मडना । ३. (घ) दम । ४. (घ) यम । ५. (घ) जाय । ६. (घ) धोया । ७. (क) स्वासे सुसार जु आया। ८. (घ) बदंत गोरष यम होय निरंतरि बीजै । ६. (क) गोर्ष । १०. (क) घर । ११. (क) ते । १२. (घ) ग्यांनी । १३. (क) जुज्यौं जुज्यौं रे जुझा बन जोज्यौ; (घ) जोत्रौ जोज्यौ रे जहूवा बन जोज्यौ । १४. (घ) राषौ । १५. (घ) त्रियाली १६. (घ) श्रासन यंद्री। १७. (घ) जिनितिन्हें । १८. (घ) कीया । १६. (घ) श्रब निरंतरि । २०. (घ) मनहि मनहीं तिन्हें । २१. (घ) तारया । २२. (घ) महीं । २३. (घ) तिन्हें मन मां । २४. (घ) पुरष । २५. (घ) परिष्या । २६. (घ) पुरिएं।
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