गोरख-बानी] छाँट तजी गुरू छांट तजौ तजौ लोभ मोह माया। आत्मां परचै राषौ गुरुदेव सुन्दर काया ॥ टेक ॥ कान्ही पाव भेटीला गुरू, विद्यानने सै। ताथै मैं पाइला गुरू, तुम्हारा उपदेसै ५ ॥१॥ एतै कळू कथीला गुरु, सबै मैला भोले। सर्व रस पोईला गुरु वाघनी चै पोलै ॥ २ ॥ नाचत गोरषनाथ घुधरी, चे घाते। सबै कमाई षोई गुरू, बाघनी १० चै राचे ११ ॥३॥ रस-कुस बहि गईला', रहि गई छोई। भणत मछिंद्रनाथ पूता, जोग न होई ॥ ४॥ r हे गुरु लोभ और माया को (छोटे) अलग से अर्थात् विना स्पर्श किये हुए छोड़ दो। हे गुरु देव, प्रात्मा का परिचय रखो जिससे यह सुन्दर काया रह जाय, नष्ट न हो । विद्यानगर के (श्रा से आये हुए) कान्हापाव से भेंट हुई थी। उसी से भाप की इस दशा का पता लगा कि श्राप कामिनियों के जाल में पड़े हुए हैं। गुरु संबंधी होने के कारण कान्हापाव के कहे हुए संदेश को 'उपदेश' कहा है।) यह जो कुछ कहा है, अर्थात् श्रापका पतन भ्रम के कारण हुआ है। आपने अमृत रस को बाधनी (माया) की गोद में (पोलै, कोरे, मोड़ में) खो दिया है। गोरख कहते हैं कि ( धाधनी माया के) घूधरू के बजने के स्वर के साथ ताल मिला कर नाचते हुए माया के प्रेम (रा. ) से, हे गुरु ! तुमने अपनी सारी प्राध्यात्मिक कमाई खो सली है रस-कुसः तरल पदार्थ । छोई-संभवतः राख । निस्सार वस्तु । गदा वाल में कपड़े धोने के लिए 'छोई' बनाई जाती थी। वहाँ छोई राख को । १. (घ) में नहीं २. (घ) अरु । ३. (घ) गुरुदेव राषौ । ४. (घ) कान्ही पाव । ५. (घ) विद्या ग्रेस उपदेसं । ६. (घ) एता काय! ७. (घ) सरव भईला १८.(घ) सरब ! ९. (घ) वाघणी के । १०. (घ) बाघणी । ११. (घ) हार्थे ।
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