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. [गोरख-बानी सकति अहै मिस रिध', कोस बल स्यू बागो। गोरप कहें चालती मारू, कान गुरू तो लागो ॥२६॥ नाथ कहै मेरा दून्यौ पंथ पूरा । जव नहीं तौ सत कानीसूरा । जत सत किरिया रहणि हमारी । और वलि बालि देवि तुम्हारी॥२६६ कथरणी कथै सो सिष वोलिये, वेद पढ़ सो नाती। रहणी रहै सो गुरू' हमारा, हम रहता का साथी ॥२७०॥ अथवा दान देते हैं योगी उसीसे मिक्षा मांगते हैं कुंडलिनी शक्ति-स्वरूपा अर्थात् माया है । गृहस्थ का जंजाल माया को अधिकाधिक स्थूल बनाता जाता है जिससे कुंडलिनी सो जाती है। माया की स्थूलता का हरण कर योग कुंडलिनी को जागृत करता है। मणिपूर चक्र में कुंदलिनी का निवास माना जाता है। मणिपूर चक्र को और उस के संसर्ग से कुसलिनी को भी, धरती करते हैं। पश्चिम, पश्चात् भाग अर्थात् सुपुग्ना या साधकावस्था माया ॥ २६७ ॥ शक्ति ने मृगया में वृद्धि और कोप के बहाने बलपूर्वक हल्ला बोल दिया। (किन्तु मैंने मी) गुरु से दीक्षा तव प्राप्त की है, (गुरु का चेला तब हूँ ) जय चलती ही को मार डालू ॥ २६८ ॥ नाय कहते है कि मेरे दोनों पंथ पूरे हैं। शारीरिक संयम (यत ) और उदय का रद माय (सत) (ये दोनों एक दूसरे के विना चल नहीं सकते) पिना जत के, सत के शूर भी नहीं हो सकते, यत और सत की क्रिया हमारी रहनी है और हे देवि ? (माया) यलि और बकरे ( याकलि (? रि)) मुम्हारे ॥ २६६॥ जो कधनी कदा करता है, यह हम से छोटा है, बंद पाठी उससे भी छोटा और जो रदनी रहता है वह दम से श्रेफ है, (हमारा गुरु है) जो रहनी पिया जा सत्त्व, रहना, प्रथया रहने वाला है) हम उसके सापीई ॥ २०० ॥ , १. (1) राघ । २. (ख) स्यु । ३. (स) मान । ४. (ख) गरु । ५. (ख) आगो। ६. (१) दुन्यो । ७. (ब) मुरा। (ब) कोरीया । .. सीथ वोलीये ?.. (57)