७६ गोरख-बानी] अवधू सहजै लैणा सहजै दैणा सहजै प्रीती ल्यौ लाई। सहजै सहजै चलैगा रै अवधू तौ बासण करैगा समाई ।। २५६ ।। तूची मैं तिरलोक समाया त्रिवेणी रिब चंदा । बूझो रे बंभ गियानी अनहद नाद अभंगा ।। २५७ ।। सत्यो सीलं दोय असनांन त्रितीये गुर बायक। चत्रथे षीषा असनान पंचमे दया असनान। ये पंच असनान निरमला" निति प्रति करत गोरख वाला ।। २५८ ।। त्रियाजीत ते पुरिषा गता मिलि भानंत ते पुरिपा गता बिसासघातगी पुरिषा गता कायरौ तत ते पुरिषा गता। - बाहर रहेगा वह नष्ट हो जायगा । वस्तु है अधिक बर्तन है छोटा, कहो हे क्या उपाय किया जाय ॥ २५ ॥ गुरु का उत्तर है कि हे अवधूत सहज स्वाभाविक रूप से शिष्य की मायिकता को लेकर (हटा कर ) उसके स्थान में ज्ञान देना चाहिए । सहज स्वभाव से प्रीति और लौ लग जायगी। सहज सहज ( स्वाभाविक ) रूप से प्रयत्न किया जायगा तो पान स्वयं वदा हो जायगा और उसमें सय समा जायगा ।। २५६॥ (ब्रह्मा के अतिरिक्त जो कुछ है सब माया के अंतर्गत है, ब्रह्मानुभूति तक पहुँचने के लिए जितने साधन अथवा सहायक सामग्री है, वह भी माया के अन्तर्गत है। ) माया की तूम्बी में वीज रूप से समस्त त्रैलोक्य, त्रिकुटी (त्रिवेणी) और सूर्य चन्द्र भी समाये हुए हैं । इसलिए हे ब्रह्मज्ञानियो कमी न भङ्ग होने वाले अनाहत नाद को (सुनो और ) समझो, ( यह तुम्हें माया के क्षेत्र से बाहर पहुँचा देगा। ) ॥ २५७ ॥ गुरुवाहक (वाचक)-गुरु वाणी को ग्रहण करने वाला या ग्रहण करना । पीपा (?), सम्भवतः सोपा अर्थात् शिष्य परम्परा चलाना, जो गुरु से प्राप्त किया, उसे औरों को दान देना ॥ २५ ॥ १.(ख) रीब । २. (ख) बोझो। ३. ( ख) भगीयानी । ४. (ख) श्रीतीये । ५. (ख) नारमधा । ६. (ख) नीति पती । ७. (ख ) त्रीयाजीत । ८. (ख ) सर्वत्र 'पुरीवा' । ६. (ख) मीली ।
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