गोरख-बानी] ७५. इस प्रोजुदा मैं मारि लै गोता, कछु मगज भीतरि घ्याल । ।। पंच कटार है भीतर,निमस करि बेहाल रै॥ २३६ ॥ व्यंद ब्यद सब कोई कहै । महाव्यंद कोइ बिरला लहै । इह व्यंद भरोसे लावै बंध । असथिरि होत न देषो कंध ॥ २३७ ॥ उलटै मूल डाल नहीं रहै। फाड़ि कछोटा रात्यों बहै। न वोह छीजै ना वोह गलै । व्यंद नहीं सो भगभुप ढलै ॥२३८।। बिणि' बैसंदर जोति बलत है गुर प्रसादे दीठी । स्वामी सीला अलुणी कहिये जिनि चीन्हा तिन दीठी ॥२३६॥ ऊजल मीन सदा रहै जल मैं सुकर सदा मलीनी । आतम ग्यांन दया बिणि' कछु नाहीं कहा भयो तन षीणा ॥२४०॥ यदि मस्तिष्क में कुछ भी विचार शक्ति है तो इसी शरीर में गोता मारो (क्योंकि सब कुछ इसी में स्थित है। ) पांच (पंचेंद्रियों जो मन का साथ देती हैं ) को (मारने वाली ) कटार भीतर ही है उसके द्वारा इन्हें बेहाल करके मार ॥२३६॥ बिंदु बिंदु बोलते तो सब हैं, किन्तु महा बिंदु (ब्रह्म तस्व) को कोई बिरला हो प्राप्त करता है। आध्यारिमक अनुभूति के विना जो विदुः (शुक्र) मात्र के अर्थ बंध क्रिया का आसरा ग्रहण करता है उसका शरीर ( स्कंध) स्थिर होता नहीं देखा गया है ॥२३७॥ शुक्र-रक्षा के साथ साथ ब्रह्मानुभूति की आवश्यकता इस सबदी में बताई है ॥२३॥ पिना भग्नि के ज्योति प्रकाशमान होती रहती है, जो गुरु के प्रसाद से मुझे दिखाई दी है । हे स्वामी जिसने शिनवृत्ति को जिसमें नमक भी नहीं प्रहण किया जाता, पहचाना है, अर्थात् वास्तविक रूप में प्रहण किया है उसी को ज्योति के दर्शन होते हैं । - बैसंदर, वैश्वानर,। सोला, शिल धृत्ति । त्रेत के स्वामी के सब अब ले लेने पर अब के जो दाने खेत में बच जाते हैं, उन्हें इकट्ठा कर निर्वाह करना शिलवृत्ति कालाता है ।। २३६ ॥ मछली सदा जल में रहने से स्वच्छ रहती है, और सुधर विष्ठा कोच १. (ख) बीणि । २. (ख) कहीये । ३. (ख) तीन । .
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