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250 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


होरी हंसा, मानो कह रहा हो, तुम्हें चारों ओर हरा दिखाई देता होगा, यहां तो सूखा ही पड़ा हुआ है।

'रुपए-पैसे की तंगी है, क्या खोलकर करूं। तुमसे कौन परदा है।'

'बेटा कमाता है, तुम कमाते हो, फिर भी रुपए-पैसे की तंगी? किसे बिस्वास आएगा।'

'बेटा ही लायक होता, तो फिर काहे का रोना था। चिट्ठी-पत्तर तक भेजता नहीं, रुपए क्या भेजेगा। यह दूसरा साल है, एक चिट्ठी नहीं।'

इतने में सोना बैलों के चारे के लिए हरियाली का एक गट्ठा सिर पर लिए, यौवन को अपने अंचल से चुराती, बालिका-सी सरल, आई और गट्ठा वहीं पटककर अन्दर चली गई।

नोहरी ने कहा-लड़की तो खूब सयानी हो गई है।

धनिया बोली-लड़की की बाढ़ रेंड़ की बाढ़ है। नहीं है अभी कै दिन की।

'वर तो ठीक हो गया है न?'

'हाँ, वर तो ठीक है। रुपए का बन्दोबस्त हो गया, तो इसी महीने में ब्याह कर देंगे। नोहरी दिल की ओछी थी। इधर उसने जो थोड़े-से रुपए जोड़े थे, वे उसके पेट में उछल रहे थे। अगर वह सोना के ब्याह के लिए कुछ रुपए दे दे, तो कितना यश मिलेगा। सारे गांव में उसकी चर्चा हो जायगी। लोग चकित होकर कहेंगे, नोहरी ने इतने रुपए दे दिए। बड़ी देवी है। होरी और धनिया दोनों घर-घर उसका बखान करते फिरेंगे। गांव में उसका मान-सम्मान कितना बढ़ जायगा। वह उंगली दिखानेवालों का मुंह सी देगी। फिर किसकी हिम्मत है, जो उस पर हंसे, या उस पर आवाजें कसे। अभी सारा गांव उसका दुश्मन है। तब सारा गांव उसका हितैषी हो जाएगा। इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल गई।'

'थोड़े-बहुत से काम चलता हो, तो मुझसे ले लो, जब हाथ में रुपए आ जायं तो दे देना।'

होरी और धनिया दोनों ही ने उसकी ओर देखा। नहीं, नोहरी दिल्लगी नहीं कर रही है। दोनों की आंखों में विस्मय था, कृतज्ञता थी, सन्देह था और लज्जा थी। नोहरी उतनी बुरी नहीं है, जितना लोग समझते हैं।

नोहरी ने फिर कहा-तुम्हारी और हमारी इज़्जत एक है। तुम्हारी हंसी हो तो क्या मेरी हंसी न होगी? कैसे भी हुआ हो, पर अब तो तुम हमारे समधी हो।

होरी ने सकुचाते हुए कहा-तुम्हारे रुपए तो घर में ही हैं, जब काम पड़ेगा ले लेंगे। आदमी अपनों ही का भरोसा तो करता है, मगर ऊपर से इन्तजाम हो जाय, तो घर के रुपये क्यों छुए।

धनिया ने अनुमोदन किया-हाँ, और क्या।

नोहरी ने अपनापन जताया-जब घर में रुपए हैं, तो बाहर वालों के सामने हाथ क्यों फैलाओ। सूद भी देना पड़ेगा, उस पर इस्टाम लिखो, गवाही कराओ, दस्तूरी दो, खुसामद करो। हां, मेरे रुपए में छूत लगी हो, तो दूसरी बात है।

होरी ने संभाला-नहीं, नहीं नोहरी, जब घर में काम चल जायगा, तो बाहर क्यों हाथ फैलाएंगे, लेकिन आपस वाली बात है। खेती-बारी का भरोसा नहीं। तुम्हें जल्दी कोई काम पड़ा और हम रुपए न जुटा सके, तो तुम्हें भी बुरा लगेगा और हमारी जान भी संकट में पड़ेगी। इससे कहता था। नहीं, लड़की तो तुम्हारी है।

'मुझे अभी रुपए की ऐसी जल्दी नहीं है।'

'तो तुम्हीं से ले लेंगे। कन्यादान का फल भी क्यों बाहर जाए?'