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226 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


अब उसकी गालियों पर लोग हंस देते थे और मजाक में कहते-क्या करेगी रुपये लेकर काकी, साथ तो एक कौड़ी भी न ले जा सकेगी। गरीब को खिला-पिलाकर जितनी असीस मिल सके, ले-ले। यही परलोक में काम आएगा। और दुलारी परलोक के नाम से जलती थी।

होरी ने छेड़ा-आज तो भाभी, तुम सचमुच जवान लगती हो।

सहुआइन मगन होकर बोली-आज मंगल का दिन है, नजर न लगा देना। इसी मारे मैं कुछ पहनती-ओढ़ती नहीं। घर से निकलो तो सभी घूरने लगते हैं, जैसे कभी कोई मेहरिया देखी ही न हो। पटेश्वरी लाला की पुरानी बान अभी तक नहीं छूटी।

होरी ठिठक गया, बड़ा मनोरंजक प्रसंग छिड़ गया था। बैल आगे निकल गए।

'वह तो आजकल बड़े भगत हो गए हैं। देखती नहीं हो, हर पूरनमासी को सत्यनारायन की कथा सुनते हैं और दोनों जून मंदिर में दर्सन करने जाते हैं।'

'ऐसे लंपट जितने होते हैं, सभी बूढ़े होकर भगत बन जाते हैं। कुकर्म का परासचित तो करना ही पड़ता है। पूछो, मैं अब बुढिया हुई, मुझसे क्या हंसी।'

'तुम अभी बुढ़िया कैसे हो गई भाभी? मुझे तो अब भी...'

'अच्छा, चुप ही रहना, नहीं डेढ़ सों गाली दूंगी। लड़का परदेस कमाने लगा, एक दिन नेवता भी न खिलाया, सेंत-मेत में भाभी बनाने को तैयार।'

'मुझसे कसम ले लो भाभी, जो मैंने उसकी कमाई का एक पैसा भी छुआ हो। न जाने क्या लाया, कहां खरच किया, मुझे कुछ भी पता नहीं। बस, एक जोड़ा धोती और एक पगड़ी मेरे हाथ लगी।'

'अच्छा कमाने तो लगा, आज नहीं कल घर संभालेगा ही। भगवान् उसे सुखी रखे। हमारे रुपये भी थोड़ा-थोड़ा देते चलो। सूद ही ता बढ़ रहा है।'

'तुम्हारी एक-एक पाई दूंगा भाभी, हाथ में पैसे आने दो। और खा ही जाएंगे, तो कोई बाहर के तो नहीं हैं, हैं तो तुम्हारे ही।'

सहुआइन ऐसी विनोद-भरी चापलूसियों से निरस्त्र हो जाती थी। मुस्कराती हुई अपनी राह चली गई। होरी लपककर बैलों के पास पहुंच गया और उन्हें पोर में डालकर चक्कर देने लगा। सारे गांव का यही एक खलिहान था। कहीं मंड़ाई हो रही थी, कोई अनाज ओसा रहा था, कोई गल्ला तौल रहा था। नाई-भारी, बढ़ी, लोहार, पुरोहित, भाट, भिखारी, सभी अपने अपने जेवर लेने के लिए जमा हो गए थे। एक पेड़ के नीचे झिंगुरीसिंह खाट पर बैठे अपनी सवाई उगाह रहे थे। कई बनिये ख़डे गल्ले का भाव-ताव कर रहे थे। सारे खलिहान में मंडी की सी रौनक थी। एक खटकिन बेर और मकोय बेच रही थी और एक खोंचे वाला तेल के सेब और जलेबियां लिए फिर रहा था। पंडित दातादीन भी होरी से अनाज बंटवाने के लिए आ पहुंचे थे और झिंगुरीसिंह के साथ खाट पर बैठे थे।

दातादीन ने सुरती मलते हुए कहा-कुछ सुना, सरकार भी महाजनों से कह रही है कि सूद का दर घटा दो, नहीं डिगरी न मिलेगी।

झिंगुरी तमाखू फांककर बोले-पंडित, मैं तो एक बात जानता हूं। तुम्हें गरज पड़ेगी तो सौ बार हमसे रुपये उधार लेने आओगे, और हम जो ब्याज चाहेंगे, लेंगे। सरकार अगर असामिया को रुपये उधार देने का कोई बंदोबस्त न करेगी, तो हमें इस कानून से कुछ न होगा। हम दर कम लिखाएंगे, लेकिन एक सौ में पचीस पहले ही काट लेंगे६इसमें सरकार क्या कर सकती