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गोदान : 191
 


दातादीन ने पैने स्वर में कहा-अगर यही हाल रहा तो भीख भी मांगोगी।

धनिया के पास जवाब तैयार था, पर सोना उसे खींच कर तलैया की ओर ले गई, नहीं, बात बढ़ जाती, लेकिन आवाज की पहुंच के बाहर जाकर दिल की जलन निकाली-भीख मांगो तुम, जो भिखमंगों की जात हो। हम तो मजूर ठहरे, जहां काम करेंगे, वही चार पैसे पाएंगे।

सोना ने उसका तिरस्कार किया-अम्मां जाने भी दो। तुम तो समय नहीं देखती, बात-बात पर लड़ने बैठ जाती हो।

होरी उन्मत्त की भांति सिर से ऊपर गंड़ासा उठा-उठाकर ऊख के टुकड़ों के ढेर करता जाता था। उसके भीतर जैसे आग लगी हुई थी। उसमें अलौकिक शक्ति आ गई थी। उसमें जो पीढ़ियों का संचित पानी था, वह इस समय जैसे भाप बनकर उसे यंत्र की भांति अंध-शक्ति प्रदान कर रहा था। उसकी आंखों में अंधेरा छाने लगा। सिर में फिरकी-सी चल रही थी। फिर भी उसके हाथ यंत्र की गति से, बिना थके, बिना रुके, उठ रहे थे। उसकी देह से पसीने की धार निकल रही थी, मुंह से फिचकुर छूट रहा था, और सिर में धम-धम का शब्द हो रहा था, पर उस पर जैसे कोई भूत सवार हो गया हो।

सहसा उसकी आंखों में निविड़ अंधकार छा गया। मालूम हुआ, वह जमीन में धंसा जा रहा है। उसने संभलने की चेष्टा में शून्य में हाथ फैला दिए और अचेत हो गया। गंड़ासा हाथ से छूट गया और वह औंधे मुंह जमीन पर पड़ गया।

उसी वक्त धनिया ऊख का गट्ठा लिए आई। देखा तो कई आदमी होरी को घेरे खड़े हैं। एक हलवाहा दातादीन से कह रहा था-मालिक, तुम्हें ऐसी बात न कहनी चाहिए, जो आदमी को लग जाय। पानी मरते ही मरते तो मरेगा।

धनिया ऊख का गट्ठा पटक पागलों की तरह दौड़ी हुई होरी के पास गई और उसका सिर अपनी जांघ पर रखकर विलाप करने लगी-तुम मुझे छोड़कर कहां जाते हो? अरी सोना, दौड़कर पानी ला और जाकर सोभा से कह, दादा बेहाल हैं। हाय भगवान्। अब किसकी होकर रहूंगी, कौन मुझे धनिया कहकर पुकारेगा।...

लाला पटेश्वरी भागे हुए आए और स्नेह भरी कठोरता से बोले-क्या करती है धनिया, होस संभाल। होरी को कुछ नहीं हुआ। गर्मी से अचेत हो गए हैं। अभी होस आया जाता है। दिल इतना कच्चा कर लेगी तो कैसे काम चलेगा?

धनिया ने पटेश्वरी के पांव पकड़ लिए और रोती हुई बोली-क्या करूं लालाजी, जी नहीं मानता। भगवान् ने सब कुछ हर लिया। मैं सबर कर गई। अब सबर नहीं होता। हाय रे, मेरा हीरा।

सोना पानी लाई। पटेश्वरी ने होरी के मुंह पर पानी के छींटे दिए। कई आदमी अपनी-अपनी अंगोछियों से हवा कर रहे थे। होरी की देह ठंडी पड़ गई थी। पटेश्वरी को भी चिंता हुई, पर धनिया को वह बराबर साहस देते जाते थे।

धनिया अधीर होकर बोली-ऐसा कभी नहीं हुआ था। लाला, कभी नहीं।

पटेश्वरी ने पूछा-रात कुछ खाया था?

धनिया बोली-हां, रात रोटियां पकाई थीं, लेकिन आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही है, वह क्या तुमसे छिपा है? महीनों से भरपेट रोटी नसीब नहीं हुई। कितना समझाती हूं, जान