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172 : प्रेमचंद रचनावली-6
 

मंगरू ने सोभा को बहुत बुरा-भला कहा-जमामार, बेईमान इत्यादि। लेने की बेर तो दुम हिलाते हो, जब देने की बारी आती है, तो गुर्राते हो। घर बिकवा लूंगा, बैल-बधिये नीलाम करा लूंगा।

सोभा ने फिर छेड़ा-अच्छा, ईमान से बताओ साह, कितने रुपये दिए थे, जिसके अब तीन सौ रुपये हो गए हैं?

'जब तुम साल के साल सूद न दोगे, तो आप ही बनेंगे।'

'पहले-पहल कितने रुपये दिये थे तुमने? पचास ही तो।'

'कितने दिन हुए, यह भी तो देख।'

'पांच-छ: साल हुए होंगे?'

'दस साल हो गए पूरे, ग्यारहवां जा रहा है।'

'पचास रुपये के तीन सौ रुपये लेते तुम्हें जरा भी सरम नहीं आती।'

'सरम कैसी, रुपये दिये हैं कि खैरात मांगते हैं।'

होरी ने इन्हें भी चिरौरी-विनती करके विदा किया। दातादीन ने होरी के साझे में खेती की थी। बीज देकर आधी फसल ले लेंगे। इस वक्त कुछ छेड़-छाड़ करना नीति-विरुद्ध था। झिंगुरीसिंह ने मिल के मैनेजर से पहले ही सब कुछ कह-सुन रखा था। उनके प्यादे गाड़ियों पर ऊख लदवाकर नाव पर पहुंचा रहे थे। नदी गांव से आध मील पर थी। एक गाड़ी दिन भर में सात-आठ चक्कर कर लेती थी। और नाव एक खेवे में पचास गाड़ियों का बोझ लाद लेती थी। इस तरह किफायत पड़ती थी। इस सुविधा का इंतजाम करके झिंगुरीसिंह ने सारे इलाके को एहसान से दबा दिया था।

तौल शुरू होते ही झिंगुरीसिंह ने मिल के फाटक पर आसन जमा लिया। हर एक की ऊख तौलाते थे, दाम का पुरजा लेते थे। खजांची से रुपये वसूल करते थे और अपना पावना काटकर असामी को देते थे। असामी कितना ही रोये, चीखे,किसी की न सुनते थे। मालिक का यही हुक्म था। उनका क्या बस।

होरी को एक सौ बीस रुपये मिले उसमें से झिंगुरीसिंह ने अपने पूरे रुपये सूद समेत काटकर कोई पचीस रुपये होरी के हवाले किए।

होरी ने रुपये की ओर उदासीन भाव से देखकर कहा-यह लेकर मैं क्या करूंगा ठाकुर, यह भी तुम्हों ले लो। मेरे लिए मजूरी बहुत मिलेगी।

झिंगुरी ने पचीसों रुपये जमीन पर फेंककर कहा-लो या फेंक दो, तुम्हारी खुसी। तुम्हारे कारन मालिक की घुड़कियां खाईं और अभी रायसाहब सिर पर सवार हैं कि डांड़ के रुपये अदा करो। तुम्हारी गरीबी पर दया करके इतने रुपये दिए देता हूं, नहीं एक धेला भी न देता। अगर रायसाहब ने सख्ती की तो उल्टे और घर से देने पड़ेंगे।

होरी ने धीरे से रुपये उठा लिए और बाहर निकला कि नोखेराम ने ललकारा। होरी ने जाकर पचीसों रुपये उनके हाथ पर रख दिए, और बिना कुछ कहे जल्दी से भाग गया। उसका सिर चक्कर खा रहा था।

सोभा को इतने ही रुपये मिले थे। वह बाहर निकला, तो पटेश्वरी ने घेरा।

सोभा बरस पड़ा। बोला-मेरे पास रुपये नहीं हैं, तुम्हें जो कुछ करना हो, कर लो।

पटेश्वरी ने गरम होकर कहा-ऊख बेची है कि नहीं?