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14 : प्रेमचंद रचनावली-6
 

'बड़ा भारी कलेजा है तुम लोगों का भाई, लेकिन फिर लाए भी तो वह माल कि यहां दस-पांच गांवों में तो किसी के पास निकलेगी नहीं।'

भोला पर नशा चढ़ने लगा। बोला-रायसाहब इसके सौ रुपये देते थे। दोनों कलोरों के

पचास-पचास रुपये,लेकिन हमने न दिए। भगवान् ने चाहा तो सौ रुपये इसी ब्यान में पीट लूँगा।

‘इसमें क्या संदेह है भाई। मालिक क्या खा के लेंगे? नजराने में मिल जाय, तो भले ले

लें। यह तुम्हीं लोगों का गुर्दा है कि अंजुली-भर रुपये तकदीर के भरोसे गिन देते हो। यही जी चाहता है कि इसके दरसन करता रहूं। धन्य है तुम्हारा जीवन कि गऊओं की इतनी सेवा करते हो । हमें तो गाय का गोबर भी मयस्सर नहीं। गिरस्त के घर में एक गाय भी न हो, तो कितनी लज्जा की बात है। साल-के-साल बीत जाते हैं, गोरस के दरसन नहीं होते। घरवाली बार-बार कहती है, भोला भैया से क्यों नहीं कहते? मैं कह देता हूं,कभी मिलेंगे तो कहूंगा। तुम्हारे सुभाव से बड़ी परसन रहती है। कहती है, ऐसा मर्द ही नहीं देखा कि जब बातें करेंगे, नीची आंखें करके, कभी सिर नहीं उठाते।'

भोला पर जो नशा चढ़ रहा था, उसे इस भरपूर प्याले ने और गहरा कर दिया।

बोला-आदमी वही है, जो दूसरों की बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझे जो दुष्ट किसी मेहरिया की ओर ताके, उसे गोली मार देना चाहिए।

‘यह तुमने लाख रुपये की बात कह दी भाई। बस सज्जन वही, जो दूसरों की आबरू

समझे।'

'जिस तरह मर्द के मर जाने से औरत अनाथ हो जाती है, उसी तरह औरत के मर जाने

से मर्द के हाथ-पांव टूट जाते हैं। मेरा तो घर उजड़ गया महतो, कोई एक लोटा पानी देने वाला भी नहीं।'

गत वर्ष भोला की स्त्री लू लग जाने से मर गई थी। यह होरी जानता था, लेकिन पचास

बरस का खंखड़ भोला भीतर से इतना स्निग्ध है, वह न जानता था। स्त्री की लालसा उसकी आंखों में सजल हो गई थी। होरी को आसन मिल गया। उसकी व्यावहारिक कृषक-बुद्धि सजग हो गई।

'पुरानी मसल झूठी थोड़े है - बिन घरनी घर भूत का डेरा। कहीं सगाई क्यों नहीं ठीक

कर लेते?'

'ताक में हूं महतो, पर कोई जल्दी फंसता नहीं। सौ-पचास खरच करने को भी तैयार

हूं। जैसी भगवान् की इच्छा।'

'अब मैं भी फिराक में रहूंगा। भगवान् चाहेंगे, तो जल्दी घर बस जायगा।'
'बस, यही समझ लो कि उबर जाऊंगा भैया। घर में खाने को भगवान् का दिया बहुत

है। चार पसेरी रोज दूध हो जाता है, लेकिन किस काम का?'

'मेरे ससुराल में एक मेहरिया है। तीन-चार साल हुए, उसका आदमी उसे छोड़कर

कलकत्ते चला गया। बेचारी पिसाई करके गुजारा कर रही है। बाल-बच्चा भी कोई नहीं। देखने-सुनने में अच्छी है। बस, लच्छमी समझ लो।'

भोला का सिकुड़ा हुआ चेहरा जैसे चिकना गया। आशा में कितनी सुधा है। बोला - अब

तो तुम्हारा ही आसरा है महतो। छुट्टी हो, तो चलो एक दिन देख आएं।